समन-मुसन

श्री गुरू अर्जुन देव जी को निरन्तर समाचार प्राप्त हो रहे थे कि लाहौर नगर में कई प्रकार के संक्रामक रोग फैले हुए हैं। जिस कारण वहाँ की जनता बहुत परेशान है। रोगों के उपचार के संतोषजनक साधन न होने के कारण बहुत लोगों की अकाल मृत्यु हो रही थी। यह सब जानकर आपका हृदय द्रवित हो उठा और आपने निश्चय किया कि ऐसी विपत्ति भरे समय में वहाँ के नागरिकों की सहायता करनी चाहिए। अत: आप जी ने स्वयँ सेवकों का एक जत्था अपने साथ लिया और लाहौर निवासियों की पीड़ा हरने के प्रयोजन से लाहौर पहुँच गये।

लाहौर निवासियों ने आपका हार्दिक स्वागत किया और इस कार्य के लिए सभी प्रकार का सहयोग देने का आश्वासन दिया। आप जी ने स्थान स्थान पर सहायता शिविर बना दिये। बीमारों का नि:शुल्क दवा उपलब्ध होने लगी। धीरे धीरे रोगों का प्रकोप कम होने लगा। इस बीच आप स्थान स्थान पर लोगों के घरों इत्यादि में आध्यात्मिकतावाद को प्रोत्साहित करने के लिए प्रवचन करने लगे। आपके प्रवचनों का प्रायः विषय होता – निम्न वर्ग अथवा असहाय व्यक्तियों की हर दृष्टि से सहायता किस प्रकार की जाये, जिससे समाज में समानता लाई जा सके अथवा प्राकृतिक प्रकोपों के समय एक दूसरे की सहायता कर दुखों से मुक्ति प्राप्त की जा सके।

समाज के धनी लोगों पर आपके व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव हुआ, वह लोग आपके प्राकृतिक प्रकोप सहायता कोष में खुले मन से धन देने लगे। कुछ धनी लोग आपको आमन्त्रित करने लगे और आप के प्रवचनों को पश्चात् समाज के सभी वर्ग के लोगों के लिए लंगर व्यवस्था करते। इस प्रकार आपने लाहौर निवासियों के जीवन में भाई चारे की भावना की क्रान्ति ला दी, जिससे समाज का उत्थान होने लगा। इस जागृति की लहर ने जनसाधारण में निराशा के स्थान पर नये उत्साह का संचार होने लगा। जिसके अन्तर्गत दो श्रमिकों ने गुरूदेव जी को निमन्त्रण दिया कि वह हमारे गृह-प्रवचन करें। ये श्रमिक आपस में रिश्ते अनुसार पिता-पुत्र थे। इन को समाज में समन-मुसन कर के जाना जाता था। गुरूदेव जी के प्रवचनों के पश्चात् प्राय: स्थानों पर मेजबान लोग यथाशक्ति संगत को लंगर में नाश्ता इत्यादि करवाते थे। समन-मुसन प्रतिदिन प्रात: गुरूदेव जी के प्रवचन सुनने जाते और नाश्ता इत्यादि वहीं करके सीधे अपने कार्यस्थल पर पहुँच जाते। वे पिता-पुत्र मन ही मन विचार करते कि हम तो जिज्ञासा की तृप्ति के कारण प्रवचन सुनने जाते हैं परन्तु लोग शायद यह विचारने लगे हैं कि हम केवल नाश्ता इत्यादि सेवन की लालसा के कारण प्रवचन स्थल पर पहुँचते हैं। अत: हमें भी एक दिन समस्त संगत को न्यौता देना चाहिए, परन्तु इसमें अधिक खर्च है, जो कि हमारी क्षमता से बाहर है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम इस शुभ कार्य के लिए कहाँ से कर्ज इत्यादि की व्यवस्था कर ले। धीरे धीरे हम कर्ज लौट देंगे? विचार अच्छा था, अत: उन दोनों ने एक पड़ौसी हलवाई से बात की और उसे बताया कि हम एक दिन गुरूदेव तथा संगत को प्रीति भोज देना चाहते हैं, यदि वह इस कार्य के लिए हमें उधार दें जिससे प्रात: संगत के लिए नाश्ते की व्यवस्था हो जाये। हम गुरूदेव जी से आग्रह करेंगे कि अगले दिन हमारे यहाँ समागम रखे और हमें सेवा का अवसर प्रदान करें।

हलवाई इन सच्चे सेवकों की सेवा भाव को मद्देनजर रखते हुए नाश्ते की सामग्री उधार देना स्वीकार कर लिया। इसी आधार पर पिता-पुत्र ने अगले दिन गुरूदेव जी से निवेदन/आग्रह किया कि उनके यहाँ भी किसी दिन समागम रखा जाये। गुरूदेव जी ने उनका आग्रह स्वीकर कर लिया और तिथि निश्चित कर दी गई। उस समय प्रवचन स्थल पर एक साहूकारभी बैठा था, जो कि समन-मुसन का पड़ौसी था। उसने विचार किया कि मैंने अधिक खर्च के डर से आज तक गुरूदेव जी को आमन्त्रित नहीं किया, जबकि इन मजदूरों ने संगत को मिन्त्रण दिया है। यह मेरे लिए चुनौती है। ईर्ष्या में साहूकार ने पता लगवाया कि इन श्रमिकों के पास लंगर करने के लिए धन कहाँ से आया? जब उसे मालूम हुआ कि स्थानीय हलवाई ने समस्त तैयार सामग्री उधार देने पर सहमति दी है तो वह साहूकार हलवाई के पास पहुँआ और उसे कहा – तुम मूर्ख हो, जो बिना किसी जमानत के उधार सामग्री देने पर तुले हो, पहले समन-मुसन से जमानत माँगो, फिर उधार देना, नहीं तो क्या पता तेरा धन डूब जाये। वे तो मजदूर हैं, कभी दिहाड़ी लगती है तो कभी नहीं। हलवाई को इस बात में दम दिखाई दिया और वह तुरन्त समन-मुसन के पास पहुँचा और उसने जमानत माँगी। जमानत न मिलने पर तैयार खाद्य सामग्री देने से इन्कार कर दिया।

इधर समन-मुसन पर हलवाई का इन्कार सुनते ही व्रजपात हुआ। वे सकते में आ गये कि अब क्या किया जाये। यदि संगत आने पर तैयार खाद्य सामग्री न मिली तो बहुत बदनामी होगी। मुसन ने एक युक्ति पर पिता जी को विचार करने को कहा – पिता जी को युक्ति अच्छी नहीं लगी किन्तु मरता क्या न करता – युक्ति में कुछ संशोधन कर, युक्ति को व्यवारिक रूप दे दिया।

वे दोनों पड़ौसी साहूकार की छत पर चढ़ गये। ऊपर की छत का मग (हवा और रोशनी के लिए बनाया गया एक फुट का छिद्र) अकस्मात् खुला ही पड़ा था। इन दोनों पिता-पुत्र ने योजना अनुसार कार्य प्रारम्भ किया। पिता ने लड़के को रस्सी से बांद कर नीचे लटकाया। लड़का नीचे उतरा और उसने घर की तिजोरी को खोला और उसमें से चाँदी के सिक्कों की थैली निकाल कर पिता को थमा दी। किन्तु पिता पुत्र का वापस बाहर निकालने का प्रयास करने लगा तो वह वापस बाहर नहीं निकाल पाया क्योंकि छिद्र बहुत छोटा और तंग था। नीचे उतरते समय तो वह जैसे-कैसे उतर गया था, किन्तु वापस ऊपर नहीं आ पाया। पिता ने पुत्र को बाहर निकालने के भरसक प्रयास किया कि जैसे-तैस वह ऊपर निकल आये, किन्तु ऐसा सम्भव न हो सका। अन्त में पुत्र ने पिता जी को परामर्श दिया कि वह उसका सिर काट कर घर ले जाये। जिससे उन पर चोरी का आरोप ना लग जाये, नहीं तो गुरूदेव जी के समक्ष मुँह दिखाने के योग्य नहीं रह जायेंगे।

मरता क्या नहीं करता की किवंदति के अनुसार पिता ने तलवार लाकर पुत्र का सिर काट लिया और उसे ले जा कर घर की छत पर एक चादर में छिपा दिया। सिक्कों की थैली समय रहते हलवाई को दे दी और उससे समस्त खाद्य सामग्री देने के लिए सहमति प्राप्त कर ली।

प्रात:काल जब साहूकार उठा तो उसने अपने घर के भीतर बिना सिर के शव देखा तो वह भयभीत हो गया। उसे पुलिस का भय सताने लगा, उसने दूरदृष्टि से काम लेते हुए पड़ौसी सुमन को सौ रूपये दिये और शव को वहाँ से हटाने को कहा – सुमन ने पुत्र का शव चादर में लपेट कर अपनी छत पर एक चारपाई पर डाल दिया और उसके साथ उसका सिर सटाकर रख दिया और ऊपर से चादर डाल दी।

निर्धारित समय पर संगत की एकमत्त हुई, जिसमें गुरूदेव जी ने कीर्तन के उपरान्त अपने प्रवचनों से संगत को कृतार्थ किया। तपश्चात् लंगर वितरण के लिए संगत की पंक्तियाँ लग गई। हलवाई ने समय अनुसार तैयार खाद्य सामग्री भिजवा दी थी। जब भोजन वितरण होने लगा तो गुरूदेव जी ने सुमन से कहा – जब तुम संगत को न्यौता देने आये थे तो तुम्हारा पुत्र भी तुम्हारे साथ था, वह अब कहीं दिखाई नहीं देता, क्या बात है? इस पर सुमन ने गुरूदेव जी से कह दिया कि वह इस समय गहरी नींद में सो रहा है। गुरूदेव जी ने कहा – अच्छा उसे उठाकर लाओ। सुमन ने उत्तर दिया कि अब वह मेरे उठाने पर भी उठने वाला नहीं है। कृपया आप स्वयँ ही उसे उठा सकते हैं। तब गुरूदेव जी ने ऊँचे स्वर में आवाज लगाई कि मुसन लंगर का समय हो गया है, अब तो चले आओ। बस फिर क्या था, देखते ही देखते घर की छत से युवक मुसन भागता हुआ नीचे चला आया और वह गुरू चरणों में दण्डवत् प्रणाम कर लंगर वितरण करने लगा। यह आश्चर्य देखकर पिता सुमन गदगद् हो गया और वह कहने लगा कि हे गुरूदेव ! आप पूर्ण हैं। आप सदैव भक्तों की लज्जा रखते हैं और अगली रात उसने सौ रूपयों की थैली साहूकार की छत के मग से उसके घर फेंक दी।

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