श्री गुरू अरजन देव जी के गृह में बालक हरि गोबिन्द जी का प्रकाश

(जन्म) श्री गुरू अरजन देव जी बहुत उदार तथा विशाल हृदय के स्वामी थे वह सदैव समस्त मानवता के प्रति स्नेह की भावना से ओत-प्रोत रहते थे।अत: उनके हृदय में कभी भी किसी के प्रति मन-मुटाव नहीं रहा। इसलिए उन्होंने अपने बड़े भाईयों को उन की मांग से भी कहीं अधिक दे दिया था और उनको सन्तुष्ट करने का पूर्ण प्रयास किया था। किन्तु बड़े भैया – भाभी उनकी मान्यता और प्रसिद्धि के कारण ईर्ष्या करते रहते थे। तब भी श्री गुरू अरजन देव जी संयुक्त परिवार के रूप में ही रहना हितकर समझते थे। संयुक्त परिवार मे केवल बालक मेहखान ही सभी की आंखो का तारा था अतः उसे गुरूदेव बहुत प्यार करते थे और वह भी अपने चाचे बिना रह नहीं पाता था प्यार दोनों ओर से था ऐसे ही समय व्यतीत हो रहा था कि एक दिन अफगानिस्तान की संगत गुरूदेव के दर्शनों को आई उन लोगों ने कुछ बहुमूल्य वस्त्र तथा आभूषण परिजनों के लिए भेंट किये। सेवकों ने गुरूदेव की पत्नी (माता) गंगा जी को सौंप दिये। इन मे कुछ गर्मवस्त्र पश्मीने के भी थे जिन्हें देखकर दासियां आश्चर्यचकित रह गई। एक दासी ने इन कीमती सामग्री का विवरण उनकी जेठानी श्री मति क्रमों देवी को दे दिया। उसे हीन भावना सताने लगी और वह सोचने लगी काश मेरे पति को गुरू गद्दी प्राप्त होती तो यह उपहार आज उसे प्राप्त होते। वह इसी उलझन में थी कि उसी समय उसके पति पृथी चंद जी घर लोट आये। उन्होंने पत्नि को उदास देखा तो प्रश्न किया-क्या बात है, बड़ा मुँह लटकाये बैठी हो? इस पर कर्मो देवी ने उत्तर दिया – हमारे भाग्य कहां जो मैं भी सुख देख? व्यंग सुनकर पृथीचंद बोला आखिर माजरा क्या है? उत्तर में कर्मो ने रहस्य उद्घाटन करते हुए कटाक्ष किया और कहा काश यदि तुम गुरू पदवी को प्राप्त कर लेते तो आज समस्त कीमती उपहार उसे प्राप्त होते। इस पर पृथी चंद ने उसे सांत्वना देते हुए कहा – तू चिन्ता न कर मैं गुरू न बन सका तो कोई बात नहीं इस बार तेरा बेटा मेहरबान गुरू बनेगा और यह सभी सामग्री लोट कर तेरे पास आ जायेगी। तभी कर्मो न पूछा वह कैसे?

उत्तर में पृथी चंद ने बताया। अरजन के सन्तान तो है नहीं वह तेरे लड़के को ही अपना बेटा मानता है, वैसे भी उनके विवाह को लगभग 15 वर्ष हो चुके है अब सन्तान होने की आशा भी नहीं है क्योंकि तेरी देवरानी बांझ है। इस बात को सुनकर कर्मो सन्तुष्ट हो गई किन्तु बाँझ वाली बात एक दासी ने सुन ली थी। उसने माता राँगा जी को चुगली कर दी और कहा – आपके प्रति दुर्भावना रखते हैं, आप के जेठ जी। वह कह रहे थे कि आप ओतरी (नपूती) हैं। दासी के मुख से यह व्यंग बाण सुनकर माता जी छटपटा उठी और वह व्याकुल होकर गुरूदेव जी के घर लौटने की प्रतीक्षा करने लगी। जैसे ही गुरूदेव दोपहर के भोजन के लिए घर पहुँचे तो श्रीमती राँगा जी ने उनसे बहुत विनम्र भाव से निवेदन किया और कहा कि आप श्री गुरू नानक देव जी के उत्तराधिकारी हैं, अतः समर्थ हैं। आप सभी याचिकों की झोलियाँ भर देते हैं। कभी किसी को निराश नहीं लौटाते। आज मैं भी आपके पास एक भिक्षा माँग रही हूँ कि एक पुत्र का दान दीजिए। मेरी भी सूनी गोद हरी-भरी होनी चाहिए। गुरूदेव ने परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए राँगा जी को धीरज बंधाया और कहा – आप की याचना उचित है, प्रभु कृपा से वह भी पूर्ण होगी। किन्तु आपको उनके लिए कुछ उद्यम करना होगा। आप तो जानती ही हैं कि इस समय श्री गुरु नानक देव जी के परम सेवक बाबा बुड्ढा जी हमारे बीच हैं, आप उन महान विभूति (बुर्जुग) के पास अपनी याचिका लेकर जाओ। मुझे आशा है कि आपकी अभिलाषा वहीं से पूर्ण होगी।

गुरू पत्नि श्रीमती गंगावी जी को युक्ति मिल गई। वह अपनी सखियों से इस विषय में विचार-विमर्श करने लगी। सभी ने मिलकर एक कार्यक्रम बनाया और उसके अन्तर्गत एक दिन खूब स्वादिष्ट पकवान तैयार करके, एक रथ पर सवार होकर, वह सभी मंगलमय गीत गाती हुई बाबा बुड्ढा जी के निवास स्थान झवाल गाँव पहुँचे। उन दिनों इस स्थान को बाबे बुड्ढे की बीड़ कहा जाता था। जब यह रथ खेतों के निकट से गुजरा तो उसमें स्त्रियों के गीत गाने का मधुर स्वर बाबा जी को सुनाई दिया, वह सतर्क हुए। उस समय वह खेतों का कार्य समाप्त कर मध्यान्तर के भोजन की प्रतीक्षा में एक वृक्ष के नीचे विश्राम मुद्रा में बैठे थे। उनको कोतूहल हुआ कि इस शान्त वातावरण में इस समय यहाँ कौन आया है? उन्होंने सेवक से पूछा – देखकर आओ कि कौन हैं? सेवक रथ के पास गया और सभी प्रकार की जानकारियाँ प्राप्त कर बाबा जी के समक्ष पहुँचा और उसने बताया कि श्री गुरू अर्जुन देव जी के महल से उनकी पत्नी आपके दर्शनों को आये हैं, पुत्र कामना लेकर। इस पर बाबा बुड्ढा जी ने कहा – गुरूदेव जी तो स्वयं समर्थ हैं, माता जी को सेवक के दर पर भटकने की क्या आवश्यकता पड़ गई। बाबा जी उसी क्षण उठे और अगवानी करने पहुँचे, माता गंगा जी का सामना होते ही उन्होंने झुककर प्रणाम किया और हार्दिक स्वागत करते हुए उन्हें अपने आश्रम में ले गये। वहाँ उन्होंने माता जी से कुशल क्षेम पूछी और कहा – आज आपने इस दास के यहाँ आने का कष्ट क्यों किया। मुझे आज्ञा भेजे देते, मैं स्वयँ हाजिर हो जाता। यह वाक्य सुनकर माता जी शांत होकर विचारों में खो गई, उनको एहसास होने लगा कि कहीं उन से भूल हो गई हैं। तथापि माता जी ने साहस बटोर कर अपने आने का प्रयोजन बता दिया। बाबा जी प्रयोजन सुनकर गम्भीर हो गये। तब तक दासियों ने रथ से भोजन उठाकर आश्रम में परोप दिया। सभी ने भोजन ग्रहण किया। किन्तु गम्भीर वातावरण बना रहा। भोजन उपरान्त बाबा बुड्ढा जी ने माता जी से कहा – मैं आपका अदना सा दास हूँ, गुरू स्वयँ समर्थ हैं, उनके पास से समस्त याचक अपनी मनोकामनाएं पूर्ण करवाते हैं, वह तो आप जानती ही हैं, फिर मैं तुच्छ प्राणी किस योग्य हूँ। यह संक्षिप्त सा उत्तर सुनकर माता जी निराश लौट आई। अगले दिन उन्होंने श्री गुरू अर्जुन देव जी को समस्त दास्तां सुनाई और कहा – मैं वहाँ भी विफल रही हैं। इस पर गुरूदेव जी ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि आप धैर्य रखें। आप ठीक स्थान पर ही गई थीं। वहीं से आपकी पुत्र कामना पूर्ण होनी है, किन्तु उसके लिए आपने उचित युक्ति नहीं अपनाई। आपको वहां गुरू – पत्नि अथवा माता बन कर नहीं जाना चाहिए था बल्कि एक याचिका, एक सेविका, एक साधारण महिला के रूप में, जो सन्तान की भिक्षा माँगने के लिए, नम्र भाव से महापुरूषों से प्रार्थना करती हैं, के रूप में जाना चाहिए था। गंगा जी को भूल का अहसास भी हुआ और उन्होंने युक्ति को ठीक से समझा।

कुछ दिन पश्चात् माता राँगा जी ने अमृत बेला में उठकर अपने हाथों से चक्की से आटा पीस कर उसकी बेसन वाली रोटियां बनाई और दही मथ कर एक सुराई में भर लिया। यह दोनों वस्तुएं सिर पर उठाकर दस कोस पैदल यात्रा करती हुई अमृतसर से झबाल गाँव दोपहर तक पहुँच गई। उस समय बाबा बुड्ढा जी खेतों का कार्य समाप्त कर भोजन की प्रतीक्षा में ही बैठे थे। उस समय उनको बहुत भूख सता रही थी, किन्तु अभी आश्रम से भोजन नहीं पहुँचा था। अकस्मात् राँगा जी के वहाँ पहुँचने से बुड्ढा जी बहुत प्रसन्न हुए, उन्होंने माता जी को भूख से व्याकुलता की बात बताई। बस फिर क्या था, माता जी ने भोजन परोस दिया। मन इच्छित भोजन देखकर बाबा जी सन्तुष्ट हो गये। भोजन के प्रारम्भ में ही माता जी ने उन्हें एक प्याज़ दिया, जिसे बाबा जी ने उसी समय मुक्का मार कर पिचका दिया और माता जी को आशीष देते हुए कहा – हे माता ! तुम्हारे यहाँ एक पराक्रमी पुत्र उत्पन्न होगा, जो दुष्टों का ठीक वैसे ही नाश करेगा, जिस प्रकार हमने प्याज की गाँठ का नाश कर दिया है।

माता राँगा जी यह आशीष लेकर प्रसन्नतापूर्वक लौट आई। कुछ दिनों में उनका पाँव भारी हो गया। जब राँगा जी के गर्भवती होने क सूचना जेठानी कर्मो तथा जेठ पृथ्वीचन्द को मिली तो वे परेशान हो उठे, उनका दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई। उनके स्वप्नों का महल रेत की भांति बिखरने लगा था। उनकी यह आशा थी कि उनका ही पुत्र मिहरबान अगला गुरू बनेगा, समाप्त होने लगी थी। अब यह दम्पत्ति ओछे हथकंडों पर उतर आये और गृह कलेश उत्पन्न करने लगे।

संयुक्त परिवार में गृह कलेश एक गम्भीर समस्या उत्पन्न कर देती है। अत: बहुओं की सासू-माँ (भानी जी) ने एक कठोर निर्णय लिया और कहा – तुम दोनों अपनी अपनी गृहस्थी अलग बसा लो। इस पर श्री गुरू अर्जुन देव जी ने माता जी की आज्ञा का पालन करते हुए कुछ दिनों के लिए अमृतसर त्यागने का निश्चय किया और वह अपने सेवकों के निमन्त्रण पर अमृतसर नगर के पश्चिम में तीन कोस दूर वडाली गाँव में अस्थाई रूप से रहने लगे। यहीं माता नँगा जी ने 19 जून, 1595 तदनुसार 21 आषाढ़ 1652 संवत को एक स्वस्थ व सुन्दर बालक को जन्म दिया। श्री गुरू अर्जुन देव जी ने अपने बेटे का नाम हरि गोबिन्द रखा।

गुरूदेव जी के वडाली गाँव में रहने के कारण दूर दूर से संगत उनके दर्शनों की अभिलाषा लिए वहीं चली आती, इस कारण गाँव का बहुत जल्दी विकास होने लगा। इन्हीं दिनों वर्षा न होने के कारण पँजाब में अकाल पड़ गया। साधारण गहराई के कुओं का पानी भी सूखने लगा। पानी के अभाव को देखते हुए गुरूदेव जी ने बहुत से गहरे कुएं खुदवाए। स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सिंचाई के साध नों को विकसित करने का कार्यक्रम बनाया। जहाँ पहले एक – हरट वाले कुओं का निर्माण किया जाता था, आपने एक विशाल कुआं बनवाया, जिसमं छ: रहट एक ही समय में कार्यरत रह सकते थे। यह कुआं बुत सफल सिद्ध हुआ। इस गाँव का नाम ही इस कुएं के नाम पर पड़ गया। आज इस गाँव के स्थान को छेहरटा साहब कहा जाता है।

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