कुछ भक्तजनों की बाणी अस्वीकार

श्री गुरू अर्जुन देव जी रामसर नामक स्थान पर एकान्तवास में जब आदि ग्रन्थ साहब के सम्पादन का कार्य कर रहे थे तो उन दिनों आप से मिलने के लिए लाहौर नगर के कुछ भक्तजन विशेष रूप से आये। उनका मुख्य आशय था कि वे भी अपनी रचनायें उस नये ग्रन्थ में लिखवा लें, जिसका सम्पादन गुरूदेव जी कर रहे थे। भक्तजनों के आगमन पर गुरूदेव जी ने उन सब का हार्दिक स्वागत किया और कहा – यदि आपकी वाणी हमारे प्रथम गुरूदेव श्री गुरु नानक देव जी की विचारधारा के अनुकूल होगी तो हम उसे अवश्य ही स्वीकार कर लेंगे अन्यथा ऐसा करना सम्भव न होगा। इस पर भक्तजनों में से श्री कान्हा जी

  1. गुरूदेव जी को अपनी रचनायें सुनाने लगे। उन्होंने उच्चारण किया –

में ओही रे, में ओही रे, जाको नारद सारद सेवे, सेवे देवी देवा रे।

ब्रह्मा बिशन महेश अराधहि, सभ करदे जा की सेवा रे।

यह पद सुनते ही गुरूदेव जी ने भक्त कान्हा जी से कहा – मुझे क्षमा करें। आपकी यह वाणी स्वीकार नहीं की जा सकती क्योंकि इस रचना में अभिमान का बौध होता है, जबकि गुरू श्री नानक देव जी का दरबार विनम्रता का पूँज है। अत: इस ग्रन्थ में विपरीत विचारधरा को शामिल नहीं किया जा सकता।

  1. तपश्चात भक्त छज्जू जी ने अपनी वाणी गुरूदेव जी को सुनानी प्रारम्भ की –

कागद संदी पूतली तउ न त्रिया निहार।

इउ ही मार लै जाएगी, जिउं बलोचा की धाड़ ।।

नारी की निन्दा सुनते ही गुरूदेव जी ने कहा – कृपा अपनी यह रचना रहने दें क्योंकि गुरू श्री नानक देव जी के घर में गृहस्थ आश्रम को प्रधानता प्राप्त है। यहाँ पर संयम में रहना सिखाया जाता है।

3. अब भक्त पीलो जी ने अपनी रचना का इस प्रकार उच्चारण किया –

पीलो असा नालो सो भले जभदिया जो मूए।

ओना चिकड़ पाव न डोबिया न आलूद भए।

गुरूदेव जी ने स्पष्ट किया कि जन्म-मरण तो प्रकृति का खेल है। हमें उन नियमों से सन्तुष्ट होना चाहिए। यदि हमारी भावनाएं उन नियमों के विरूद्ध होगी तो हम भक्त कदाचित नहीं हो सकते। अत: यह रचना भी गुरू श्री नानक देव जी के सिद्धान्त के समान नहीं है, अतः यह अस्वीकार्य है। उन्हें गुरूमत सिद्धान्तों से अवगत कराते हुए यह रचना सुनाई।

दुखु नाही सभु सुख ही है रे, ऐक एकी नेते।

बुरा नहीं संभु भला ही है रे, हार नही सभ जेते।

अन्त में भक्त शाह हुसैन जी ने अपनी वाणी उच्चारण की –

चुप वे अड़िया, चुप वे अड़िया ।।

बोलण दी नही जाय वे अड़िया ।।

सजणा बोलण दी जाय नाही ।।

अंदर बाहर हिका साई ।।

किस नूं आख सुणाई ।।

इको दिलबर सभि घट रविआ दूजी नहीं कढ़ाई ।।

कहै हुसैन फकीर निमाणा, सतिगुर तो बलि बलि जाई ।।

गुरूदेव जी ने श्री गुरू नानक देव जी के सिद्धान्त को इस प्रकार सुना कर बताया

जब लगु दुनीआ रहीऐ नानक किछु सुणीऐ किछु कहीऐ ॥

अत: यह रचना भी हम स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि सैद्धान्तिक मतभेद सभी जगह विद्यमान हैं।

इस पर भक्त कान्हा जी गुरूदेव से असहमत हो गये और अपने पक्ष में बहुत सी बातें बताने लगे कि वह पूर्ण पुरूष हैं, किन्तु गुरुदेव जी ने उन्हें अपना दृढ़ निश्चय बता दिया कि वह विरोधी विचारधारा को कभी भी अपने ग्रन्थ में कोई स्थान नहीं देंगे। शेष तीनों भक्तजन शान्त बने रहे और वे गुरूदेव जी के निर्णय पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और लौट गये। मार्ग में एक दुर्घटना में भक्त कान्हा की मृत्यु हो गई।

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