सुलही खान

पृथ्वीचन्द व सुलही खान का ईर्ष्यावश लक्ष्य एक ही था। अत: उनकी मित्रता प्रगाढ़ रूप धारण कर गई। सुलही खान ने सैनिक टुकड़ी लेकर लाहौर से दिल्ली जाना था। अत: वह पृथ्वीचन्द को साथ लेकर अमृतसर की ओर चल पड़ा। रास्ते में हेहरा गाँव पड़ता था। इसलिए पृथ्वीचन्द ने उसे अपने घर प्रीतिभोज दिया औरउसका भव्य स्वागत किया। अब पृथ्वीचन्द सन्तुष्ट था कि अब की बार उसका शत्रु अवश्य ही मारा जायेगा।

दूसरी तरफ श्री गुरू अर्जुन देव जी को यह सूचना उनके श्रद्धालु सिक्खों ने तुरन्त पहुँचा दी कि आप पर सुलही खान आक्रमण करने वाला है। अत: आप कोई अपनी सुरक्षा का समय रहते उपाय कर लें, किन्तु गुरूदेव शांतचित्त व अडौल बन रहे। गुरूदेव को गम्भीर मुद्रा में देखकर कुछ सिक्खों ने उन से आग्रह किया कि हमें अमृतसर नगर तुरन्त त्याग देना चाहिए ताकि शत्रु के हाथ न आ सके। कुछ सिक्खों ने गुरूदेव जी को सुझाव दिया कि आपको तुरन्त एक प्रतिनिधि मण्डल सुलही खान के पास भेजकर उसके साथ कुछ ले-देकर एक संधि कर लेनी चाहिए।

कुछ ने सुझाव दिया कि हमें शत्रु का सामना करना चाहिए, आदि आदि। भान्ति – भान्ति के विचार गुरूदेव जी ने सुने, किन्तु वे अडौल, शान्तचित्त, प्रभु भजन में व्यस्त हो गये। जब आपने कुछ लोगों को भयभीत देखा तो सभी को कहा – हमें प्रभु चरणों में प्रार्थना करनी चाहिए क्योंकि हम निर्दोष है। वही सर्वशक्तिमान हमारी सुरक्षा करेगा।

हेहरा गाँव में पृथ्वीचन्द ने अपने द्वारा बनाये गये सरोवर के केन्द्र में भवन बनाने के लिए ईटों का भट्ठा लगाया हुआ था। उसमें ईटें पक रही थी। उसके मन में आया कि मैं अपने अथिति को गाँव की सैर करवा दें और दिखाऊं कि कौन कौन से विकास कार्य किये जा रहे हैं। अत: वह सुलही खान को ईटों के आवे के पास ले गया। उस समय सुलही खान सैनिक पोशाक में घोड़े पर सवार था, वह एड़ी लगाकर घोड़े को ईंटों के आवे पर चढ़ा ले गया। आवा अन्दर से बहुत गर्म था, जैसे ही घोड़े के पाँव गर्मी से जले वह बिदक गया। जिससे कुछ ईटे खिसक गई और वे नीचे जा गिरी। बस इस प्रकार घोड़ा सन्तुलन खो बैठा और वह देखते ही देखते तेज आग में जा गिरा। आग बहुत तेज थी, क्षण भर में ही घोड़े सहित सुलही खान राख का ढेर बन गया। इस प्रकार पृथ्वीचन्द का यह प्रयास भी बुरी तरह विफल हो गया।

जल्दी ही यह सूचना अमृतसर गुरू अर्जुन देव जी के पास पहुँच गई कि सुलही खान मारा गया है। उसी क्षण गुरूदेव जी ने अकाल पुरूष का धन्यवाद किया और संगत को बताया कि निर्दोषों को सदैव एक प्रभु का ही आश्रय होता है। यदि हम प्रभु (अकालपुरूष) पर पूर्ण भरोसा रखे तो वह स्वयँ रक्षा करता है। जब वह सर्वशक्तिमान हमारे साथ है तो कोई भी बड़े से बड़ा शत्रु हमारा बाल बाँका भी नहीं कर सकता। आपने इस घटनाक्रम को प्रभु का धन्यवाद करते हुए इस प्रकार कलमबद्ध किया : –

प्रथमे मता जि पत्री चलावउ ॥ दुतीए मता दुइ मानुख पहुचावउ ॥ त्रितीए मता किछु करउ उपाइआ ॥ मै सभु किछु छोडि प्रभ तुही धिआइआ ॥१॥ महा अनंद अचिंत सहजाइआ ॥ दुसमन दूत मुए सुखु पाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुरि मो कउ दीआ उपदेसु ॥ जीउ पिंडु सभु हरि का देसु ॥ जो किछु करी सु तेरा ताणु ॥ तूं मेरी ओट तूंहै दीबाणु ॥२॥ तुधनो छोडि जाईऐ प्रभ कैं धरि ॥ आन न बीआ तेरी समसरि ॥ तेरे सेवक कउ किस की काणि ॥ साकतु भूला फिरै बेबाणि ॥३॥ तेरी वडिआई कही न जाइ ॥ जह कह राखि लैहि गलि लाइ ॥ नानक दास तेरी सरणाई ॥ प्रभि राखी पैज वजी वाधाई ॥४॥५॥

राग आसा, महला एवं पृष्ठ 37

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