गुरूदेव जी ने संगत को सांत्वना दी और कहा – जहाँ चाह वहीं राह – जब आपके हृदय में परमेश्वर के साथ एकमेव होने की लालसा उत्पन्न हो गई है तो रास्ते की अड़चने भी धीरे धीरे हटती चली जायेगी। बस धैर्य और विश्वास से प्रभु चिन्तन मनन में सुरति जोड़ने का अभ्यास करते रहना चाहिए। किन्तु सँसार तामसी और राजसी गुणों में फंसा हुआ है, इसलिए मन पर नियन्त्रण नहीं रख पाता। आपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए गुरूवाणी पढ़ते समय सतर्क रहना है। मन को शब्दों के अर्थबोध में लीन रखना है, इस प्रकार वाणी को समझने से विवेक जागृत होता है और शुभ व अशुभ कार्यों का स्वयँ ही ज्ञान होने लग जाता है। यही ज्ञान ही मन को शान्त एकाग्र करने में सहायक बनता चला जाता है। गुरूदेव जी ने कहा –
त्रिसना बुझै हरि कै नामि ॥ महा संतोखु होवै गुर बचनी प्रभ सिउ लागै पूरन धिआनु ॥१॥
राग धनासरी, महला 5, पृष्ठ 682
यथा भाई मेरे मन को सुख कोटि अनद राज सुख भुगवे, हरि सिमरत बिनसे सभ दुरवु। रहाउ कोटि जनम के किलबिख नासहि, सिमरत पावन तन मन सुख। देखि सरूप पूरनु भई आसा, दरसनु भेटत उतरी भुरख।।
राग टोडी, महला 5 वां, पृष्ठ 717