तुज़ाकि जहाँगीरी नामक रोज़नामचे की इबारत

गोइंदवाल जो, ब्यास नदी के किनारे पर स्थित है, में पीरों बजुर्गों की वेष- भूषा में (गुरू) अरजन नामक एक हिन्दू निवास करता है। सीधे – साधे हिन्दू ही नहीं बल्कि बहुत से मूर्ख तथा अंजान मुसलमानों को भी उसने अपनी जीवन शैली का श्रद्धालु बना कर स्वयं के ‘वली’ तथा ‘पीर’ होने का ढोल बहुत ऊँचे स्वर में बजाया हुआ है और वे सभी उसको गुरू कहते थे। सभी स्थानों से समाज विरोधी तत्व वहाँ पहुँच कर उस पर पूरा भरोसा तथा श्रद्धा प्रकट करते थे। तीन-चार पीढ़ियों से उन की दुकान गर्म थी। बड़ी देर से मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हो रहा था कि झूठ की इस दुकान को बन्द करना चाहिए या उस को मुसलमानी मत में ले आना चाहिए।

इन्हीं दिनों खुसरो ने ब्यास नदी पार कर उस के डेरे पर पड़ाव किया। इस जाहिल तथा हकीर खुसरो का इरादा उससे मिल कर सहायता लेने का था। वह उसको मिला तथा निश्चित बातें (गुरू जी को) सुनाई और केसर से अपने माथे पर टीका लगाया जिस को हिन्दू लोग तिलक कहते है तथा शुभ शगुन मानते है। यह बात जब मेरे कानों में पड़ी तब पहले से ही इन के झूठ को अच्छी तरह जानता था। मैंने आदेश दिया कि उस (गुरू जी) को हाजिर किया जाए तथा मैंने उस के घर – घाट और बच्चे मुर्तजा खाँ के हवाले कर दिये और उस का माल असबाब जबत करने का हुक्म दिया कि उस को स्यासत और यासा के कानून अनुसार दण्ड दें।

दीवान चन्दू लाल: बादशाह अकबर के वित्त मंत्रालय में चन्दू लाल नाम का एक अधिकारी था अतः लोग उस को दीवान जी कह कर सम्बोधन करते थे। चन्दू लाल ने दिल्ली तथा लाहौर नगरों में अपने पक्के निवास के लिए हवेलियाँ बनवाई हुई थी। प्राचीन परम्परा के अनुसार चन्दू ने अपनी लड़की का रिश्ता, गुरू अरजन देव जी के सपुत्र (गुरू) हरगोबिन्द जी से पुराहित द्वारा निश्चित कर दिया था। परन्तु उसने झूठे अभियान में एक प्रीती भोज में आकर गुरु – घर की शान के विपरीत कुछ शब्द हंसी उड़ाने के अंदाज में कहे :- “पुरोहित जो आपने चुबारे की ईट मोरी को लगा दी है,” वहाँ पर विराजमान सिक्ख संगत ने इस बात पर आपत्ति की तथा गम्भीरता – पूर्वक गुरुदेव जी को संदेश भेज दिया कि अभिमानी चन्दू ने गुरु नानक देव जी के दर – घर को तुच्छ बताया है और स्वयं को बहुत ऊँचा बताया है। बस फिर क्या था। संदेश प्राप्त होते ही गुरू अरजन देव जी ने आये रिश्ते को ठुकरा दिया । किन्तु इस परिणाम की चन्दू को आशा नहीं थी। वास्तव में वह इस रिश्ते से संतुष्ट था। रिश्ता टूटने पर उसके स्वाभिमान को गहरी ठेस पहुँची । वह पश्चाताप में था। इसलिए उसने बहुत प्रयत्न किये कि रिश्ता पुन: स्थापित हो जाए किन्तु गुरूदेव जी नहीं माने। पंजाबी समाज में रिश्ते – नाते टूटने भी रहते है इसलिए ऐसी घटनाओं से लोग एक – दूसरों से रुष्ट हो जाते है किन्तु कोई जानी दुश्मन तो नहीं बनता।

गुरुदेव जी की शहीदी के दिन को कच्ची लस्सी की छबील लगाकर खूब मनाते हैं। सभी भक्तजनों को उस प्रभु का हुक्म मानने के लिए कच्ची लस्सी पिलाई जाती है। जिससे उनकी शहीदी पर कोई विघ्न न डाले।

जब आदि श्री गुरु ग्रंथ साहिब की रचना गुरु अर्जुन देव जी करवा चुके थे तो उन दिनों गुरुदेव के इस ग्रंथ की दूर-दूर तक प्रसिद्धि फैली हुई थी। इसके कारण गुरुदेव के कटु आलोचक शेख अहमद सरहिंदी ने गुरुदेव के विरूद्ध उस समय के शासक जहाँगीर के पास चुगली कर दी कि अर्जुन देव ने एक ग्रंथ तैयार किया है जिसमें इस्लाम के विरूद्ध बातें कहीं गईं हैं। यह सुनते ही वह आग बबूला हो उठा। तभी एक ऐतिहासिक घटना घटित हुई। जहाँगीर का बड़ा लड़का खुसरो बागी हो गया तथा उसने अपने पिता के विरूद्ध बगावत कर दी। बाप बेटे में युद्ध हुआ। जिसमें खुसरो पराजित होकर आगरे से लाहौर की तरफ भाग खड़ा हुआ। रास्ते में वह गुरु अर्जुन देव के दरबार में दर्शनों हेतु रूका तथा उसने गुरुदेव के लंगर से भोजन किया। यह समाचार भी गुरुदेव के कटु आलोचकों द्वारा जहाँगीर के पास पहुँचा दिया गया कि अर्जुन देव ने तेरे बागी लड़के को पनाह दी है तथा उसकी सहायता कर रहे हैं। बस फिर क्या था! जहाँगीर ने अपने लड़के खुसरो को पकड़कर हत्या करवाने के पश्चात् लाहौर में गुरुदेव को आदि ग्रंथ सहित बुला भेजा। तब गुरुदेव अपने पाँच प्रमुख सेवकों की देख-रेख में ‘आदि ग्रंथ’ को साथ लेकर लाहौर पहुँच गये। तब जहाँगीर ने गुरुदेव पर प्रश्न किया कि तुमने मेरे बागी लड़के को पनाह दी है? इसके उत्तर में गुरुदेव ने कहा हमारा स्थान, गुरु बाबे नानक का घर है। यह फकीरों का स्थान होने के कारण सभी के लिए खुला है। यहाँ किसी को भी आने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। इसलिए खुसरो बागी था या नहीं। इस बात का हमारे से कोई संबंध नहीं है। अब उसका दूसरा प्रश्न था कि आपने जो ग्रंथ रचा है। उसमें इस्लाम की तौहीन है। उत्तर में गुरुदेव ने कहा प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती ग्रंथ जांचा जा सकता है। तब जहाँगीर बादशाह ने पोथी साहिब की वाणी पढ़वाकर सुनी। तब प्रथम बार यह रचना उस समय पढ़ने को मिली –

खाक नूर करदं आलम दुनीआइ ॥ असमान जिमी दरखत आब पैदाइसि खुदाइ ॥१॥

अंक : ७२३ यह हुक्मनामा/वाक्य जहाँगीर को बहुत अच्छा लगा परन्तु शेख अहमद सरहिंदी को अपनी बाजी हारती हुई अनुभव हुई और वह कहने लगा कि इस कलाम को इन लोगों ने निशानी लगा कर रखा हुआ है इसलिए उसी स्थान से पढ़ा है। अत: किसी दूसरे स्थान से पढ़कर देखा जाए। इस पर जहाँगीर ने अपने हाथों से कुछ पृष्ठ पलट कर दुबारा पढ़ने का आदेश दिया।

अवलि अलह नूरु उपाइआ, कुदरति के सभ बंदे ॥ एक नूर ते सभु जगु उपजिआ, कउन भले को मंदे ॥१॥

अंक १३४९ इस शब्द को श्रवण कर जहाँगीर प्रसन्न हो गया। परन्तु दुष्ट जुण्डली ने दुबारा कह दिया कि यह कलाम भी इन लोगों ने कण्ठस्थ किया मालूम पड़ता है। इसलिए किसी ऐसे (आदमी) व्यक्ति को बुलाओ जो गुरमुखी अक्षरों का ज्ञान रखता हो, ताकि उससे इस कलाम के बारे ठीक पता लग सके।

तब एक गैर-सिख व्यक्ति (आदमी) को बुलाया गया जो कि गुरमुखी पढ़ना जानता था। उसको (गुरु) ग्रंथ साहिब में से पाठ पढ़ने का आदेश दिया गया। उस व्यक्ति ने जब (गुरु) ग्रंथ साहिब से पाठ पढ़ना शुरू किया। यह निम्नलिखित हुक्मनामा (वाक) आया –

बिसरि गई सभ ताति पराई ॥ जब ते साधसंगति मोहि पाई ॥१॥

अंक : १२९९ इस हुक्मनामे को सुनकर जहाँगीर पुर्णत: संतुष्ट हो गया किन्तु जुण्डली के लोग पराजय मानने को तैयार नहीं थे। उन्होंने कहा ठीक है परन्तु इस ग्रंथ में हजरत मुहम्मद साहिब तथा इस्लाम की तारीफ लिखनी होगी। इसके उत्तर में गुरुदेव जी ने कहा कि इस ग्रंथ में साम्प्रदायिक निरपेक्षता तथा समानता को आधार मानते हुए इलावा किसी व्यक्ति विशेष की प्रशंसा नहीं लिखी जा सकती तथा ना ही किसी विशेष समप्रदाय की स्तुति लिखी जा सकती है। इस ग्रंथ में केवल निराकार परमात्मा की ही स्तुति की गई है। जहाँगीर ने जब यह उत्तर सुना तो वह शान्त हो गया। परन्तु शेख अहमद सरहिंदी तथा शेख फरीद बुरखारी जोकि पहले से आग बबूले हुए बैठे थे। उनका कहना था कि यह तो बादशाह की तौहीन है और (गुरु) अरजन की बातों से बगावत की बू आती है। इसलिए इसको माफ नहीं करना चाहिए। इस प्रकार चापलूसों के चुंगल में फंसकर बादशाह भी गुरुदेव पर दबाव डालने लगा कि उनको उस (गुरु) ग्रंथ (साहिब) में हजरत मुहम्मद साहिब और इस्लाम की तारीफ में जरूर कुछ लिखना चाहिए। गुरुदेव ने इस पर अपनी असमर्थता दर्शाते हुए स्पष्ट इंकार कर दिया। बस फिर क्या था। दुष्टों को अवसर मिल गया। उन्होंने बादशाह को विवश किया कि (गुरु) अरजन बागी है जोकि बादशाह की हुक्म अदूली एवं गुस्ताखी कर उसकी छोटी सी बात को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं इसलिए उसको मृत्यु दण्ड दिया जाना ही उचित है।

इस तरह बादशाह ने (गुरु जी) पर एक लाख रूपये दण्ड का आदेश दिया और वह स्वयं वहाँ से प्रस्थान कर सिंध क्षेत्र की ओर चला गया। क्योंकि वह जानता था कि चापलूसों ने उससे गलत आदेश दिलवाया है। बादशाह के चले जाने के पश्चात् दुष्टों ने लाहौर के गवर्नर मुर्तजा खान से माँग की कि वह (गुरु) अरजन से दण्ड की राशि वसूल करे। गुरुदेव जी ने दण्ड का भुगतान करने से स्पष्ट इंकार कर दिया क्योंकि जब कोई अपराध किया ही नहीं तो दण्ड क्यों भरा जाए? लाहौर की संगत में से कुछ धनी सिक्खों ने दण्ड की राशि अदा करनी चाही किन्तु गुरुदेव ने सिक्खों को मना कर दिया और कहा संगत का धन निजी कामों पर प्रयोग करना अपराध है। आत्म सुरक्षा अथवा व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए संगत के धन का दुरूपयोग करना उचित नहीं है।

गुरुदेव जी ने उसी समय साथ में आए हुए सिख सेवकों को आदेश दिया कि वे ‘आदि श्री गुरु ग्रंथ साहिब’ के स्वरूप की सेवा – सम्भाल करते हुए अमृतसर वापस लौट जाएं। गुरुदेव को अनुभव हो गया था कि दुष्ट जुण्डली के लोग, आदि श्री गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी में मिलावट करवा कर परमेश्वर की महिमा को समाप्त करने की कोशिश जरूर करेंगे, क्योंकि उनको इस्लामी प्रचार में लोकप्रिय वाणी बाधक प्रतीत होती थी। वास्तव में वे लोग नहीं चाहते थे कि जन साधारण की भाषा में आध्यात्मिक ज्ञान बाँटा जाए क्योंकि उनकी तथाकथित पीरी – फकीरी (गुरु डंम) की दुकान की पोल खुल रही थी।

देवनेत ही दुष्ट लोग अपने षड्यन्त्र में सफल नहीं हुए; वैसे अपनी ओर से उन्होंने कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी थी। इसलिए किसी नये कांड से पहले (गुरु) ग्रंथ साहिब के स्वरूप को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देना जरूरी था।

लाहौर का गवर्नर मुरतज़ा खान गुरुदेव जी के जीवन चरित्र से बहुत प्रभावित था। अत: वह कुछ निर्णय ले नहीं पा रहा था। तभी चन्दू दीवान ने उसकी समस्या हल कर दी कि मैं यह राशि जमा कर दूंगा। बशर्ते कि गुरुदेव को मेरे हवाले कर दें। मैं सोचूगां कि मैंने यह राशि अपनी बेटी के दहेज में दी है। चन्दू गुरु जी को घर ले जाकर मजबूर करने लगा कि मेरी लड़की का रिश्ता अपने लड़के के लिए स्वीकार कर लें। परन्तु गुरुदेव जी नहीं माने। इस पर गुरुदेव जी को लाहौर के शाही किले में लाया गया तथा वहाँ पर शेख अहमद के आदेश के अनुसार काजी ने उनको इस्लाम स्वीकार करने को कहा। नहीं तो शरहा कानून के अन्तर्गत मृत्यु दण्ड दिया जाएगा। परन्तु गुरु जी ने कहा मुझे दण्ड स्वीकार है। मैं इस नाशवान शरीर का मोह नहीं करता। मैं अपने विश्वास पर दृढ़ तथा अडिग हूँ। तब काजी के आदेश के अनुसार गाय की ताजी खाल मँगवाई गई। इससे पहले कि वह पहुँचे गुरुदेव जी को यातनाएँ देना प्रारम्भ कर दी गयीं। वास्तव में उनका उद्देश्य गुरुदेव जी को डरा-धमकाकर इस्लाम स्वीकार कराना था। परन्तु गुरुदेव जी विचलित नहीं हुए।

पहले उनको धूप से हुए गर्म लोहे की चादर पर बिठा दिया गया। उन दिनों जून का महीना था, अत: सख्त गर्मी पड़ रही थी। परन्तु गुरुदेव उस पर ऐसे विराजे जैसे किसी कालीन पर बैठे हो। जब मुसलमान सूफी फकीर साईं मिया मीर जी को सूचना मिली कि गुरु अर्जुन देव को इस भीषण गर्मी में गर्म लोहे पर कष्ट दिये जा रहे हैं तो वह तुरन्त गुरुदेव के सम्मुख उपस्थित हुए तथा विनती करने लगे कि हे गुरुदेव ! आप तो सम्पूर्ण कलाओं में सामर्थ्य हैं, सरब शक्तिमान हैं। फिर यह उपद्रव आप क्यों सहन कर रहे हैं। इस पर गुरुदेव जी ने उत्तर दिया – मैं इस सब कार्य में भी प्रकृति का खेल देख रहा हूँ। अतः मैं उस प्रभु के हुक्म में खुश हूँ। इस के साथ ही उनके शीश पर धूप से गर्म रेत डाली गई। जिससे गुरुदेव जी को नकसीर फूट पड़ी तथा वह बेसुध हो गये क्योंकि वह रात भर से भूखे प्यासे थे। जब दुष्टों ने देखा कि शरही कानून (यासा) के अन्तर्गत तो खून नहीं बहना चाहिए तो उन्होंने गुरु जी को होश में लाने के लिए पानी में डाल दिया। परन्तु उन की बेहोशी न टूटी। इस पर उन्होंने उस टब को उबाल दिया। उनका विचार था कि गर्म पानी के सेक से होश आएगी, परन्तु इस प्रकार गुरुदेव जी का देहान्त हो गया। तब दुष्टों ने उनके शव को रावी नदी में बहा दिया तथा अफवाह उड़ाई कि गुरुदेव जी ने स्नान करने की इच्छा प्रकट की थी। स्नान करने पर वह वहाँ से नहीं लौटे। दूसरी अफवाह उड़ाई कि गुरुदेव जी की मृत्यु के पीछे चन्दू की घरेलू शत्रुता है। उन्होंने तुजके – जहाँगीरी नामक पुस्तक में अपनी तरफ से निम्नलिखित इब्बारत लिख डाली । जिससे जनसाधारण भ्रम में पड़ गया।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *