भाई छज्जू शाह से पूछताछ की गई तो उनका उत्तर था कि मैं किसी से धोखा अथवा बेइमानी नहीं करता। मेरे पास इस व्यक्ति का कोई अमानती सामान नहीं है। सबूत के अभाव में न्यायधीश ने दोनों को भयभीत करने के विचार से एक युक्ति सुझाई कि तुम दोनों का निर्णय भगवान पर छोड़ देते हैं क्योंकि तुम दोनों उस प्रभु, दिव्य ज्योति पर पूर्ण विश्वास करते हो। अत: एक गर्म तेल की कड़ाही में शपथ लेकर तुम दोनों हाथ डालों जो सच्चा होगा, उसका हाथ नहीं जलेगा, झुठे का जल जायेगा। इस प्रकार निर्णय हो जायेगा।
भाई छज्जू शाह गुरू का शिष्य था, उसे अपनी सच्चाई और ईमानदारी पर नाज़ था। दूसरी ओर पठान भी सच्चा था, किन्तु वह गर्म तेल में हाथ डालने से भय खा गया और डगमगा कर उसने अपना मुकद्दमा वापिस ले लिया। इस प्रकार मुकद्दमा खारिज हो गया। कुछ दिन व्यतीत हो गये।
एक दिन भाई छज्जू जी अपनी दुकान की सफाई करवा रहे थे तो वह थैली कहीं नीचे दबी हुई मिल गई। थैली को देखकर छज्जू जी को ध्यान आ गया कि यह थैली उस पठान की ही है, जो हमारे ऊपर मुकद्दमे का कारण बनी थी। अब भाई छज्जू जी प्रायश्चित करने लगे और जल्दी ही उन्होंने उस पठान को खोज लिया, वह अभी अपने वतन वापिस नहीं लौटा था। भाई जी ने उससे क्षमा याचना करते हुए उसकी अमानत वह मोहरों वाली थैली लौटा दी। किन्तु पठान ने सच्चे होने पर भी बहुत हीनता का अनुभव किया था। थैली मिलने पर वह तिलमिला उठा। उससे फिर से अदालत का दरवाजा खटखटाया और न्याय की दुहाई दी। न्यायधीश ने समस्त घटनाक्रम को ध्यानसे सुना और भाई छज्जू शाह से प्रश्न किया कि जब पहला निर्णय आपके पक्ष में हो गया था। तो अब आपने यह सिक्को की थैली क्यों लौटाई। इस पर भाई छज्जू जी ने उत्तर दिया कि मैं गुरू अर्जुन देव का सिक्ख हूँ, इसलिए कभी भी झूठा व्यापार, धोखा, बेइमानी इत्यादि नहीं करता क्योंकि मैं सदैव अपने गुरू को साक्षी मानता हूँ। परन्तु यह थैली मेरे ध्यान से उतर गई थी, इसमें मेरा कोई छल-कपट नहीं था। अत: मुझे क्षमा किया जाये। अदालत ने भाई जी को क्षमा दे दी। परन्तु पठान सन्तुष्ट नहीं हुआ। उसने छज्जू शाह जी से पूछा कि मैं सच्चा था, तब भी गर्म तेल का भय सामने देखकर भाग गया जबकि तुम झुठे थे, तुम्हें डर क्यों नहीं लगा? तुम में इतना आत्म विश्वास कहाँ से आ गया। इस पर भाई जी ने कहा – मुझे अपने गुरू पर पूर्ण भरोसा है। मैं उन्हीं का आश्रय लेकर प्रत्येक कार्य करता हूँ। पठान की जिज्ञासा और भी बढ़ गई, वह चाहने लगा कि मैं उस पीर – मुर्शद के दीदार करना चाहता हूँ, जिसके शर्गिदों में इतनी आस्था है कि वह विचलित नहीं हाते। भाई छज्जू जी पठान के आग्रह पर उसे अमृतसर लेकर गुरू दरबार में उपस्थित हुए। उन्होंने गुरू दरबार में समस्त संगत के समक्ष अपनी व्यथा सुनाई। उत्तर में गुरूदेव ने पठान के संशय का समाधान करते हुए कहा – जो व्यक्ति स्वयँ को अपने इष्ट को समर्पित कर देते हैं और चिंतन मनन में लीन रहते हैं, उनमें उनकी आराधना आत्मविश्वास उत्पन्न कर देती है, जिससे वह कभी भी डगमगाते नहीं। इसके विपरीत जो व्यक्ति स्वयँ को इष्ट को समर्पित नहीं होता और सिमरण भजन में मन नहीं लगाते, वह स्थान स्थान पर डगमगाते हैं।