राँगा राम व्यापारी ने संगत के उत्साह को देखा। उसके हृदय में भी इच्छा हुई कि वह भी संगत में सम्मिलित होकर कार सेवा अथवा श्रम दान में भाग ले। उसने ऐसा ही किया। वह अवकाश के समय गुरू दरबार में उपस्थित होकर, कीर्तन कथा और गुरूदेव के प्रवचन सुनता। धीरे धीरे गुरूदेव के प्रवचनों का उसके मन पर ऐसा प्रभाव हुआ कि वह गुरूदेव का शिष्य बन गया। उसके हृदय परिवर्तन ने उसे निष्काम सेवक के रूप में विकसित कर दिया। वैशाखी पर्व पर नई फसल के आने पर अनाज का अभाव समाप्त हो गया और दूर-दराज से संगत के आगमन से धन की कमी भी समाप्त हो गई। गुरूदेव ने एक दिन नॅगाराम व्यापारी को कहा कि वह अपने बाजरे के दाम कोष से प्राप्त कर ले किन्तु राँगा राम ने ऐसा नहीं किया, वह वहीं पर सेवारत रहने लगा। कुछ दिन पश्चात् गुरूदेव ने उसे फिर बुलाया और कहा – आप व्यापारी हैं। अत: कोषाध्यक्ष से अपना हिसाब ले लें। इस पर राँगाराम जी कहने लगे कि मैं पहले कभी व्यापारी था किन्तु अब नहीं रहा। वास्तव में मैंने पहले कच्चा धन संचित किया है जो कभी स्थिर नहीं रहता, किन्तु मैं अब पक्का धन संचित करना चाहता हूँ जो लोक-परलोक में मेरा आश्रय बने। गुरूदेव ने उसे फिर कहा – व्यापार अपने स्थान पर है क्योंकि वह आपकी जीविका है और गुरू भक्ति अपने स्थान पर है क्योंकि यह आध्यात्मिक दुनियां है। अतः आप अपने अनाज के दाम ले लें। किन्तु अँगा राम जी ने उत्तर दिया कि मेरे पास धन का अभाव नहीं है। मेरी अनाज के रूप में भी सेवा स्वीकार की जाये। जिससे मुझे परम आनन्द मिलेगा। गुरूदेव ने उसके हृदय परिवर्तन को अनुभव किया और उसकी निष्काम सेवा के लिए स्वीकृति प्रदान कर दी और उसे आशीष दी और कहा – प्रभु ! आपकी मंशा पूरी करेगा।