सम्राट को यह बात बहुत युक्तिसंगत लगी। वह सोचने लगा कि जिस प्रकार रामराय मेरा मित्र बन गया है। यदि श्री हरिकिशन जी से मेरी मित्रता हो जाए तो कुछ असम्भव बातें सम्भव हो सकती हैं जो बाद में प्रशासन के हित में सिद्ध हो सकती हैं क्योंकि इन गुरू लोगों की देश भर में बहुत मान्यता है।
अब प्रश्न यह था कि श्री गुरू हरिकिशन जी को दिल्ली कैसे बुलवाया जाये। इस समस्या का समाधान भी कर लिया गया कि हिन्दू को हिन्दू द्वारा आदरणीय निमन्त्रण भेजा जाए, शायद बात बन जायेगी। इस युक्ति को किर्यावित करने के लिए उसने मिरजा राजा जयसिंह को आदेश दिया कि तुम गुरू घर के सेवक हो। अत: कीरतपुर से श्री गुरू हरिकिशन जी को हमारा निमंत्रण देकर दिल्ली ले आओ। मिरजा राजा जय सिंह ने सम्राट को आश्वासन दिया कि वह यह कार्य सफलता पूर्वक कर देगा और उसने इस कार्य को अपने विश्वास पात्र दीवान परसराम को सौंपा। वह बहुत योग्य और बुद्विमान पुरूष था। इस प्रकार राजा जय सिंह ने अपने दीवान परसराम को पचास घोड़ सवार दिये और कहा कि मेरी तरफ से कीरतपुर में श्री गुरू हरिकिशन को दिल्ली आने के लिए निवेदन करें और उन्हें बहुत आदर से पालकी में बैठाकर पूर्ण सुरक्षा प्रदान करते हुए लायें। जैसे कि 1660 ईस्वी में औरंगजेब ने श्री गुरू हरिराय जी को दिल्ली आने के लिए आमंत्रित किया था वैसे ही अब 1664 ईस्वी में दूसरी बार श्री गुरु हरिकिशन जी को निमंत्रण भेजा गया। सिक्ख सम्प्रदाय के लिए यह परीक्षा का समय था। श्री गुरू अर्जुन देव भी जहाँगीर के राज्यकाल में लाहौर गये थे और श्री गुरु हरिगोविद साहब भी ग्वालियर में गये थे। विवेक बुद्वि से श्री गुरू हरि किशन जी ने सभी तथ्यों पर विचारविमर्श किया। उन दिनों आपकी आयु 7 वर्ष की हो चुकी थी। माता किशनकौर जी ने दिल्ली के निमंत्रण को बहुत गम्भीर रूप में लिया। उन्होंने सभी प्रमुख सेवकों को सत्तर्क किया कि निर्णय लेने में कोई चूक नहीं होनी चाहिए। गुरूदेव ने दीवान परस राम के समक्ष एक शर्त रखी कि वह सम्राट औरंगजेब से कभी नहीं मिलेंगे और उनको कोई भी बाध्य नहीं करेगा कि उनके बीच कोई विचार गोष्टि का आयोजन हो। परसराम को जो काम सौंपा गया था, वह केवल गुरूदेव को दिल्ली ले जाने का कार्य था, अत: यह शर्त स्वीकार कर ली गई।
दीवान परसराम ने माता किशनकौर को सांत्वना दी और कहा – आप चिंता न करें। मैं स्वयं गुरूदेव की पूर्ण सुरक्षा के लिए तैनात रहूँगा। तत्पश्चात् दिल्ली जाने की तैयारियाँ होने लगी। जिसने भी सुना कि गुरू श्री हरिकिशन जी को औरंगजेब ने दिल्ली बुलवाया है, वही उदास हो गया। गुरूदेव की अनुपस्थिति सभी को असहाय थी किन्तु सभी विवश थे। विदाई के समय अपार जनसमूह उमड़ पड़ा। गुरूदेव ने सभी श्रद्वालुओं को अपनी कृपादृष्टि से कृतार्थ किया और दिल्ली के लिए प्रस्थान कर गये।