श्री हरिकिशन जी का बाल्यकाल अत्यन्त लाड़ प्यार से व्यतीत हुआ। परिवारजन तथा अन्य निकटवर्ती लोगों को बाल हरिकिशन जी के भोले भाले मुख मण्डल पर एक अलौकिक आभा छाई दिखाई देती थी, नेत्रों में करूणा के भाव दृष्टिगोचर होते थे। छोटे से व्यक्तित्व में गजब का ओज रहता था। उनका दर्शन करने मात्र से एक आत्मिक सुख सा मिलता था। | गुरू हरिराय अपने इस नन्हें से बेटे की ओर दृष्टि डालते तो उन्हें प्रतीत होता था कि जैसे प्रभु स्वयँ मानव रूप धारण कर किसी महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस घर में पधारे हो। भाव श्री हरिकिशन में उन्हें ईश्वरीय पूर्ण प्रतिबिम्ब नजर आता। वह हरिकिशन के रूप में ऐसा पुत्र पाकर परम सन्तुष्ट थे।
गुरू हरिराय जी ने दिव्य दृष्टि से अनुभव किया कि शिशु हरिकिशन की कीर्ति भविष्य में विश्वभर में फैलेगी । अतः इस बालक का नाम लोग आदर और श्रृद्वा से लिया करेंगे। शिशु का भविष्य उज्ज्वल है। यह उन्हें दृष्टिमान हो रहा था और उनका विश्वास फलीभूत हुआ। श्री हरिकिशन जी रू पद की प्राप्ति के पश्चात् अपना नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित करवा दिया।