श्री गुरु हरगोबिन्द जी - Shri Guru Hargobind Sahib Ji

भाई भैरों जी

श्री गुरू हरिगोविन्द साहब अपने जीवन के अन्तिम दिनों में कीरतपुर क्षेत्रा में रहने लगे थे। यह नगर आप के बड़े सुपुत्रा श्री गुरूदिता जी ने बसाया था। इस क्षेत्रा का नरेश ताराचन्द था। जिसे गुरूदेव ने जहाँगीर की कैद से ग्वालियर के किले से स्वतन्त्रा करवाया था। स्थानीय लोग गुरूदेव का बहुत सम्मान करते थे और गुरू नानक देव द्वारा चलाये पंथ पर अथाह श्रद्धा रखते थे। किन्तु कुछ रूढ़िवादी लोगों ने एक छोटी सी पहाड़ी के शिखर पर एक पत्थर को तराश कर एक मूर्ति का निर्माण किया हुआ था, जिसे वे नयना देव कह कर सम्बोधन करते थे। उनके भोलेपन से वहाँ का स्थानीय पुजारी खूब लाभ उठाता था और जन साधारण का शौषण करता था। जब यह बात वहाँ के एक स्थानीय सिख को मालूम हुई, जिस का नाम भैरों था, ने अनपढ़ तथा साधारण भक्तों को बहुत समझाने का प्रयास किया कि हमें विवेक बुद्धि से काम लेना चाहिए, व्यर्थ में अपना धन, समय और शक्ति नष्ट नहीं करनी चाहिए। प्रभु तो रोम रोम में रमा राम है, यदि हम निराकार की उपासना करें तो इन आडम्बरों से बचा जा सकता है और शान्ति प्राप्ति का भी अद्भुत आभाष होगा। इस बात को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने भक्त कबीर जी की रचना सुनाई, जिस में भक्त जी मालनी को सम्बोध न करके समझा रहे हैं कि तू भूल मैं है, सुन ! तुमने जीवन को निरजीव को भेंट किया है, इसलिए कल्याण सम्भव नहीं क्योंकि फूल में जीवन है और पत्थर की मूर्ति निरजीव।।

पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ ॥
जिसु पाहन कउ पाती तोरै सो पाहन निरजीउ ॥१॥
भूली मालनी है एउ ॥
सतिगुरु जागता है देउ ॥

किन्तु लोग कहाँ मानने वाले थे वह वही भेड़चाल ही चले जा रहे थे। फिर एक दिन भाई भैरों जी को एक युक्ति सूझी, उन्होंने लोगों के गलत | विश्वासों को समाप्त करने के लिए मूर्ति नयना देव की नाक तोड़ डाली। इस पर मूर्ति पूजक बहुत छटपटाये किन्तु वे भाई भैरों जी का सामना नहीं कर पाये क्योंकि उनकी बात में तथ्य था और वह हर दृष्टि से शक्तिशाली थे। अतः मूर्ति पूजन समुदाय ने स्थानीय नरेश राजा तारा चन्द के पास भाई भैरों जी की शिकायत की। नरेश ताराचन्द ने बहुत सोच विचार के पश्चात् इस दुखान्त को श्री गुरू हरिगोविन्द जी के सम्मुख रखा। उन्होंने तुरन्त भाई भैरों जी को बुलाया। भाई भैरों जो शायद इस समय की प्रतीक्षा में बैठे थे। उन्होंने अपने ऊपर लगे आरोप के उत्तर में कहा – आप को पहले देवी से पूछना चाहिए कि उस का नाक किसने तोड़ा है ? यह सुनते ही समस्त दरबार में हँसी फैल गई। ताराचन्द ने उत्तर दिया – देवी से पूछा नहीं जा सकता क्योंकि वह बोलती नहीं, वह तो पत्थर की बेजान एक कलाकृति है। इस पर भाई भैरों जी ने कहा – बस मैं भी तो यह कहना चाहता था कि जो मूर्ति बेजान है, उसके आगे शीश झुकाने से क्या लाभ, वह तो अपनी सुरक्षा भी नहीं कर सकती। अतः वहाँ जो आडम्बर रचा जाता है, वह सब कर्मकाण्ड है। इन से कुछ प्राप्त होने वाला नहीं, केवल पुजारी लोगों की जीविका का साधन मात्रा है। आप द्वारा फल-फूल, दूध, मिठाइयां इत्यादि सब व्यर्थ चले जाते हैं। क्यों न हम विवेक बुद्धि से विचार करके उस पूर्ण सच्चिदानंद की उपासना करें जो सर्वत्रा विद्यमान हैं।

भाई साहब की यह सूक्ष्म विचारधारा सुनकर सभी निखत्तर होकर शान्त हो गये।

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