श्री गुरु हरगोबिन्द जी - Shri Guru Hargobind Sahib Ji

भाई गोपाला जी (Shri Guru Hargobind Ji)

श्री गुरू हरिगोविन्द जी ने अपने पूर्वज गुरूजनों के अनुसार कोई भी आध्यात्मिक ज्ञान की काव्य रचना नहीं की किन्तु वह अपने पूर्वज गुरूजनों की रचित वाणी पर अथाह श्रद्धा, विश्वास रखते थे।वह प्रायः गुरूवाणी का कीर्तन श्रवण करते समय एकाग्र हो जाते और उनकी सुरति प्रभु चरणों में) जुड़ जाती थी।

एक दिन उनका का दरबार सजा हुआ था और संगत को शुद्ध वाणी उच्चारण का महत्त्व बता रहे थे कि जहाँ शुद्ध वाणी पढ़ने से अर्थ स्पष्ट होते हैं, वहीं मनुष्य को आत्मबोद्ध भी होता चला जाता है। भावार्थ यह कि शुद्ध वाणी पढ़नी ही आध्यात्मिक प्राप्तियाँ करवाता है। तभी उनके मन में

आया कि संगत में ऐसा कोई व्यक्ति है जो शुद्ध ‘जपुजी साहब’ का पठन करने में निपुण हो? तभीउन्होंने घोषणा की कि है कोई व्यक्ति जो हमें शुद्ध ‘जपु जी साहब’ नामक वाणी का शुद्ध उच्चारण करके सुना सकता हो ? वैसे दरबार में बहुत सुलझे हुए व्यक्ति और भक्तजन थे जो यह कार्य सहज में कर सकते थे किन्तु संकोचवश कोई भी साहस करके सामने नहीं आया। जब गुरूदेवने संगत को दोबारा ललकारा तो एक व्यक्ति उठा, जिसका नाम गोपाल दास था, वह गुरूदेव के समक्ष हाथ जोड़ विनती करने लगा कि यदि मुझे आज्ञा प्रदान करें तो मैं शुद्ध पाट उच्चारण करने का पूर्ण प्रयास करूंगा। गुरूदेव ने उसे एक विशेष आसन पर बिठाया और उसे गुरू वाणी शुद्ध सुनाने का आदेश दिया।

भाई गोपाल दास जी, बहुत ध्यान से सुरति एकाग्र करके पाठ सुनाने लगे। शुद्ध पाठ के प्रभाव से संगत आत्मविभोर हो उठी, उस समय आलौकिक आनन्द का अनुभव सभी श्रोतागण कर रहे थे। गुरूदेवजी भी अपने सिहांसन पर बैठे किसी दिव्य अनुभूतियों में खोये अपने सिहांसन में धीरे धीरे सरकने लगे, जब आप ३/४ तीन चौथाई सरक गये तो उस समय अकस्मात् भाई गोपालदास जी के हृदय में कामना उत्पन्न हुई कि यदि गुरूदेव मुझे पुरस्कार रूप में एक इरानी घोड़ा दे दें तो मैं उनका कृतज्ञ हो जाऊँगा। उसी समय गुरूदेव पुनः अपने सिहांसन पर पूर्ण रूप से विराजमान हो गये। पाट की समाप्ति पर गुरूदेव ने रहस्य स्पष्ट करते हुए कहा – संगत जी, हम शुद्ध पाठ के प्रतिक्रम में गुरू नानक की जो विरासत हमारे पास है, वह गुरू की गद्दी ही भाई गोपाल जी को सौंपने लगे थे किन्तु उनके हृदय में पाठ के अन्तिम भाग में एक तृष्णा ने जन्म लिया कि मुझे यदि घोड़ी उपहार में मिल जाये तो कितना अच्छा हो। अतः हम उन्हें घोड़ी उपहार में दे रहे हैं।

भाई गोपाल दास जी ने स्वीकार किया कि उनके मन में इसी संकल्प ने जन्म लिया था। भाई गोपाल जी ने कहा हम साँसारिक जीव हैं, तुच्छ सी वस्तुओं के लिए भटक जाते हैं।

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