श्री गुरु हरगोबिन्द जी - Shri Guru Hargobind Sahib Ji

भाई कट्टू शाह (Shri Guru Hargobind Ji)

जैसे कि हम पिछले अध्याय में पढ़ चुके हैं कि भाई कटू शाह जी काश्मीर घाटी के प्रारम्भ में बारामूला नगर के निकट निवास करते थे। इस क्षेत्रा में जैसे ही यह समाचार फैला कि छटे गुरू श्री गुरू हरिगोवन्दि जी श्रीनगर गये हैं तो स्थानीय संगत उनके दर्शन करने के लिए सामुहिक रूप में चल पड़ी। रास्ते में वे लोग भाई कटू शाह जी के यहां उनकी धर्मशाला में ठहरे। सभी लोग अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार गुरूदेव के लिए उपहार लाये थे। इनमें एक सिख के हाथ में एक बर्तन था, जिस को उसने एक विशेष कपड़े से बांध कर ढका हुआ था। जैसे ही भाई कट्टू जी की दृष्टि उस पर पड़ी तो उन्होंने जिज्ञासावश पूछ लिया, इस बर्तन में क्या है ? उत्तर में सिख ने कहा – मैं गुरूदेव जी को एक विशेष किस्म की शहद भेंट करने जा रहा हूं, वहीं इस बर्तन में है। भाई कट्टू शाह जी को दमे का रोग था, उन्होंने सिख से कहा – यदि थोड़ी सी शहद मुझे दे दें तो मैं उस से दवा खा लिया करूंगा। किन्तु सिक्ख ने कहा – यह कैसे हो सकता है, पहले मैं गुरूदेव को इसे प्रसाद रूप में भेंट करूंगा, पीछे वह जिसे उनकी इच्छा हो, दें।।

भाई कट्टू जी उस सिक्ख के उत्तर से शांत हो गये, क्योंकि उसका तर्क भी ठीक था। जब यह सिक्खों का जत्था श्री नगर गुरूदेव के सम्मुख उपस्थित हुआ तो सभी ने अपने अपने उपहार भेंट किये। जब वह सिक्ख अपना बर्तन गुरूदेव को अपिर्तत करने लगा तो उन्होंने उसे स्वीकार ही नहीं किया। सिख ने इस का कारण पछा तो गुरूदेव ने कहा : जब हमें इच्छा हुई थी, शहद चखने की तो आपने हमें दिया नहीं, अब हमें यह नहीं चाहिए। सिक्ख ने बहुत पश्चाताप किया परन्तु गुरूदेव जी ने कहा – आप लौट जायें, पहले हमारे सिख को दें जब उसकी तृष्णा तृप्त होगी तो हम इसे बाद में स्वीकार करेंगे।

सिख तुरन्त लौट कर कटटूशाह के पास आया और उनसे अवज्ञा की क्षमा याचना करने लगा। भाई कट्टू जी ने कहा – गुरूदेव तो वैसे ही अपने सिखों का मान बढ़ाने के लिए लीला रचते हैं। आपके कथन में भी तथ्य था, पहले समस्त वस्तुएं गुरू को ही भेंट की जाती है, इसमें क्षमा मांगने वाली कोई बात नहीं। किन्तु सिख ने कहा – मैं सिक्खी के सिद्धान्त को समझ गया हूं।

गरीब का मुँह ही गुरू की गोलक है।

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