जब काबुल नगर की संगत गुरूदेव के सम्मुख उपस्थित हुई तो सेट करोड़ीमल ने अपनी व्यथा कह सुनाई। उत्तर में गुरूदेव ने उसे सांत्वना दी और कहा – वे घोड़े हम युक्ति से प्राप्त कर लेंगे आप धैर्य रखें। तभी गुरूदेव ने भाई विधिचन्द को बुलाकर आदेश दिया कि आप लाहौर जाकर इसी युक्ति से वे घोड़े वहाँ से निकाल लायें। गुरूदेव जी का आशीष प्राप्त कर विधिचन्द लाहौर नगर पहुंचे। वहाँ उन्होंने अपनी वेश-भूषा एक घास बेचने वाले व्यक्ति वाली बना ली और बहुत बढ़िया घास की गाँट बनाकर शाही किले के समक्ष घासियों की कतार में बैठ गये। अस्तबल का दरोगा जब घास ख़रीदने के विचार से जब विधिचन्द की घास जांचने लगा और उसने मूल्य पूछा तो उसे ज्ञात हुआ कि विधिचन्द की घास अच्छी है और मूल्य भी उचित है। अतः वह घास खरीद ली गई और घासिये से कहा गया कि वह घास उठाकर अस्तबल में घोड़ों को डाल दें यह क्रम कई दिन चलता रह्म। इस बीच विधिचन्द ने उन दो घोड़ों की पहचान कर ली और उनकी सेवा करने लगा। दरोगा ने प्रसन्न होकर उन को घोड़ों की देखभाल के लिए नौकर रख लिया। विधिचन्द जी ने निर्धारित लक्ष्य के अनुसार अपना वेतन वहाँ के सन्तरियों पर खर्च करना प्रारम्भ कर दिया। जब सभी का वह विश्वास प्राप्त कर चुके तो उन्होंने एक रात उन में से एक घोड़े पर काटी डाल कर उसे तैयार कर किले की दीवार फांदकर रावी नदी के पानी में छलांग लगा दी। उन दिनां रावी नदी किले की दीवार से टकराकर बहती थी । घोड़ा पानी से सुरखित बाहर आ गया। भाई विधिचन्द घोड़ा लेकर गुरूचरणों में अमृतसर पहुंचा।
सभी विधिचन्द की इस सफलता पर प्रसन्न हुए किन्तु घोड़ा बीमार रहने लगा। इस पर गुरूदेव जी ने विधिचन्द से कहा – आपका कार्य अभी अधूरा है क्योंकि यह घोड़ा अपने साथी के बिना अस्वस्थ रहता है। अतः आप पुनः कष्ट करें और दूसरा घोड़ा भी लेकर आयें ।
विथिचन्द जी आज्ञा अनुसार पुनः लाहौर पहुंचे। इस बार उन्होंने ज्योतिष विज्ञान के ज्ञाता के रूप में शाही किले के सामने अपनी दुकान सजा ली और लगे लोगों का भविष्य पढ़ने। एक दिन उनके पास दरोगा भी आ पहुँचा। उसने भी अपना हाथ दिखाया, बस फिर क्या था, भाई विधिचन्द जी उसे बनताने लगे कि तुम्हारी कोई चोरी हुई है, शायद कोई घरेलु पशु रहा है ? यह सुनना था कि दरोगा को उन पर विश्वास हो गया, वह इट करने लगा कि मैं मुँह माँगा धन देंगा यदि इस विषय में मुझे विस्तार से जानकारी उपलब्ध करवा दें। इस पर ज्योतिषि रूप में भाई विधिचन्द जी कहने लगे कि अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए उसे वह स्थान और वहाँ के वातावरण का अध्ययन करना होगा तभी वह ठीक से चोर के विषय में ज्योतिष के आँकड़ों की गणना प्राप्त कर सकेगा। दरोगा तुरन्त उनको अस्तबल में ले आया। ज्योतिषि रूप में विधिचन्द जी ने सभी स्थानों को ध्यान से देखा और सुंघा, फिर कहा यहाँ उसके साथ का एक घोड़ा और भी है शायद यही है। उन्होंने दूसरे घोड़े को पहचान कर बताया और फिर कहा – आप के घोड़े की चोरी अर्ध रात्रि को हुई है। अतः उसी परिस्थितियों में अनुमान लगाये जा सकेंगे। इस प्रकार दरोगा उनकी चाल में फंस गया, वह अर्धरात्रि की प्रतीक्षा करने लगे। अर्धरात्रि के समय विधिचन्द जी ने बहुत ही सहज अभिनय करते हुए कहा – आप सब उसी प्रकार का वातावरण तैयार करें, मैं ठीक से अनुभव लगाता हूँ, जब सब अपने अपने कमरों में सो गये तो विधिचन्द जी ने दरोगा से कहा – कृपया आप इस घोड़े पर काठी लगवाए, मैं इस पर बैठकर और इसे घुमा फिरा कर अन्तिम निर्णय पर जल्दी ही पहुँच जाऊँगा। ऐसा ही किया गया, तभी विधिचन्द जी ने घोड़े की सवारी की और उसे खूब घुमाया फिराया। अकस्मात् वह दरोगा को बताने लगे कि पहले आपका घासिया नौकर घोड़े को अमृतसर श्री हरिगोविन्द जी के पास ले गया है और अब वही घासियां दोबारा ज्योतिषि के रूप में इसे वहीं ले जा रहा है और उन्होंने किले की दीवार फांदकर रावी नदी में घोड़े सहित छलांग लगा दी। वह इस युक्ति से दूसरा घोड़ा भी गुरू चरणों में लाने में सफल हो गये।
घोड़ा तो अमृतसर पहुंच गया परन्तु विविधचन्द जी ने गुरूदेव को सतर्क किया कि सम्भव है, हमारे उपर मुगल सेना आक्रमण कर दे।