श्री गुरु हरगोबिन्द जी - Shri Guru Hargobind Sahib Ji

चन्दूशाह की चिन्ता (Shri Guru Hargobind Ji)

श्री गुरू हरिगोविन्द जी के बढ़ते हुए तेज-प्रताप की चर्चा जब उनके चचेरे भाई पृथ्वीचन्द के बेटे मेहरबान तक पहुंची तो वह पुनः ईर्ष्या की आग में जलने लगा। उसने यह सूचना दीवान चन्दू शाह तक पहुंचाई। इस पर दीवान चन्दू चिन्तातुर हो उठा। उसे शक हो गया कि कहीं अर्जुन देव का बेटा हरिगोविन्द अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध मुझ से लेने की तैयारी तो नहीं कर रहा। क्योंकि वह जानता था कि षड्यन्त्रकारियों ने उसे खूब बदनाम किया है। जब कि उसकी अर्जुन देव जी की हत्या में कोई भी भूमिका नहीं थी, केवल उसे तो मूर्ख बनाकर एक साधन के रूप में प्रयोग किया गया था। किन्तु अब किया भी क्या जा सकता था क्योंकि ‘बद से बदनाम’ बुरा होता है।

इस गम्भीर विषय को लेकर चन्दू ने अपनी पत्नी से परामर्श किया। उसने कहा – हमें एक दूत भेजकर अपना पक्ष स्पष्ट करना चाहिए और पश्चात्ताप स्वरूप उन्हें फिर से अपनी लड़की का रिश्ता भेजना चाहिए ताकि यह मनमुटाव और दोनों परिवारों में पड़ा हुआ भ्रम कि गुरूदेव की हत्या में उनका हाथ है, सदैव के लिए समाप्त हो जाए।

जब विशेष दूत चन्दू शाह का सन्देश लेकर गुरूदेव के पास पहुंचा तो उन्होंने रिश्ता स्वीकार करने से साफ इन्कार कर दिया। इस उत्तर से चन्दू आशंकित हो उठा और गुरूदेव जी की बढ़ती हुई शक्ति उसे अपने लिए खतरा अनुभव होने लगी। उसने युक्ति से काम लेने के विचार से लाहौर के सुबेदार (राज्यपाल) को पत्रा भिजवाया कि वह (गुरू) हरिगोविन्द की गतिविधियों की पूरी जानकारी बादशाह जहांगीर को भेजे जिससे यह प्रमाणित किया जा सके कि गुरू की तरफ से बगावत का भय बन गया है।

लाहौर के राज्यपाल कुलीज खान ने ऐसा ही किया। उसने गुरू उपमा को बढ़ा चढ़ा कर एक ख़तरे के आभास के रूप में बादशाह के समक्ष प्रस्तुत किया। बादशाह जहांगीर का चिन्तातुर होना स्वाभाविक था। उसने तुरन्त इस प्रश्न पर विचारविमर्श के लिए अपनी सलाहकार समिति बुलाई। जिस में उसके उपमंत्री वज़ीर खान भी थे। यह वजीर खान गुरूघर पर अपार श्रद्धा रखते थे क्योंकि सांई मीयां मीर जी द्वारा मार्गदर्शन पर उनका जलोघर का रोग गुरू जी की शरण में आने पर दूर हो गया था। वह श्री गुरू अर्जुन देव द्वारा रचित सुखमनी साहब की वाणी नित्य पठन किया करते थे। उन्होंने बादशाह को धैर्य रखने को कहा और उसे सांत्वना दी। इस पर सम्राट ने पूछा मुझे क्या करना चाहिए ? सूझवान वज़ीरचन्द ने कहा – मैं उनको आपके पास बुला कर लाता हूं, जब साक्षात्कार होगा तो अपने आप एक दूसरे के प्रति भ्रम दूर हो जायेगा। सम्राट को यह सुझाव बहुत पसन्द आया। उसने वजीर खान तथा किन्चा बेग के हाथों श्री गुरू हरिगोविन्द जी को दिल्ली आने का निमन्त्राण भेजा।

जब वज़ीरचन्द व किन्चा बेग सम्राट का निमन्त्राण लेकर अमृतसर पहुंचे तो गुरूदेव ने उनका हार्दिक स्वागत किया, किन्तु निमन्त्रण के प्रश्न पर माता गंगा जी ने आपत्ति की और इस गम्भीर विषय को लेकर प्रमुख सिक्खों की सभा बुलाई गई। सभा में वज़ीर खान ने माता जी को आश्वासन दिया कि सम्राट की नीयत पर संशय करना व्यर्थ है, वह तो केवल आप की सैनिक गतिविधियों से आश्वस्त होना चाहते हैं कि आप के कार्यक्रम उसके प्रति बगावत (क्रान्ति) तो नहीं, यदि आप उसे सन्तुष्ट करने में सफल हो जाते हैं तो वह आपका मित्रा बन जायेगा।

माता गंगा जी पिछले कड़वे अनुभव से भयभीत थी क्योंकि श्री गुरू अर्जुन देव जी को लाहौर आमन्त्रिात करने पर उनको शहीद कर दिया गया था। इस बार वह कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती थी। किन्तु इस बार सम्राट और गुरूदेव के बीच मध्यस्थ के रूप में गुरू घर का सेवक वजीरखान था जिनका मान रखना भी आवश्यक था । अतः अन्त में यह निर्णय लिया गया कि गरूदेव जाये और सम्राट का भ्रम दूर करें, जिससे बिना कारण तनाव उत्पन्न न हो, गुरूदेव जी ने दिल्ली प्रस्थान करने से पूर्व दरबार साहब की मर्यादा इत्यादि कार्यक्रम के लिए बाबा बुड्ढा जी व श्री गुरूदास जी को नियुक्त किया। तद्पश्चात एक सैनिक टुकड़ी साथ लेकर धीरे धीरे मंजिल तय करते दिल्ली पहुंच गए।

यमुना नदी के तट पर एक रमणीक स्थल देखकर श्री गुरू हरिगोविन्द साहब को शिविर लगाने को कहा गया। कहा जाता है कि एक शताब्दी पहले यहां मजनू नाम का दरवेश रहता था, जिसकी अब वहां समाधि थी। यह घटना सन् १६१२ ईस्वी तदानुसार संवत १६६६ की है।

वजीरखान व किन्चा बेग ने सम्राट जहांगीर को सूचना दी कि श्री गुरू हरिगोविन्द जी को हम अपने साथ लाने में सफल हुए हैं। इस पर सम्राट ने उनको आदेश दिया कि उनको हर प्रकार की सुख सुविधा उपलब्ध करवाई जोय तथा उससे हमारी मुलाकात का समय निश्चित कर दिया जाए। इस बीच जब दिल्ली की सिक्ख संगतों को मालूम हुआ कि गुरूदेव यहां पधारे हुए हैं तो उनके दर्शनों को तांता लग गया।

अगले दिन बादशाह के कुछ वरिष्ठ अधिकारी आपकी आगवानी करने के लिए आये और उन्होंने गुरूदेव जी से निवेदन किया कि आप को सम्राट ने दर्शनों के लिए याद किया है। उस समय आप स्थानीय संगतों में घिरे बैठे थे। आपने कुछ समय में ही संगतों से विदाई ली और दिल्ली के पुराने किले में बादशाह से भेंट करने पहुंचे। उस समय जहांगीर ने आपका स्वयं स्वागत किया और अपने सामान्तर एक आसन पर विराजमान होने को कहा। जहांगीर आपके व्यक्तित्त्व व शारीरिक रूपरेखा से बहुत प्रभावित हुआ, वह आपका सौन्दर्य निहारता ही रह गया। आप उस समय केवल १८ वर्ष के युवक थे। औपचारिक वार्ता के पश्चात् सम्राट ने गुरूदेव की योग्यता का अनुमान लगाने के विचार से प्रश्न किया – पीर जी, इस मुल्क में दो बड़े मजहब हैं, हिन्दू व मुसलमान। आप बतायें कि कौन सा मजहब अच्छा है? उत्तर में गुरू देव ने कहा – वही मतावलम्बी अच्छे हैं जो शुभ कर्म करते हैं और अल्लाह के खौफ में रहते हैं। यह संक्षिप्त सा उत्तर सुनकर सम्राट की संतुष्टि हो गई कि यह युवक भले ही शाही पोशाक में है, किन्तु आध्यात्मिक दुनियां में भी कोई मुकाम रखता है। इसके अतिरिक्त सम्राट ने गुरूदेव से कई विषय पर चर्चा की जब उस की तसल्ली हो गई कि यह वास्तव में श्री गुरू नानक देव जी के उत्तराधिकारी होने के नाते भीतर से किसी ऊंचे आदर्श के स्वामी हैं तो उसने गुरूदेव को एक भेट दी। जिसे गुरूदेव ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और वहां से विदा लेकर अपने शिविर में लौट आये।

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