कुछ ही दिनों में शाही काफिला आगरा नगर के निकट पहुंच गया। इस काफिले में गुरूदेव जी का अलग से शिविर लगाया जाता था। इस बार शिविरों के निकट एक गांव था। उन लोगों को जब मालूम हुआ कि इस शिविरों में एक श्री गुरू नानक देव जी के उत्तराधिकारी श्री गुरू हरिगोविन्द जी का शिविर है तो वहां के लिए संगत गुरूदेव के दर्शनों के लिए आने लगी। दोपहर का समय था, कुछ गर्मी थी । सभी कुछ समय के लिए भोजन उपरान्त विश्राम कर रहे थे कि एक गरीब श्रमिक सिर पर घास की गांड उठाये वहां चला आया और वह वहां खड़े सन्तरियों से पूछने लगा कि मेरे सच्चे पातशाह का तम्बू कौन सा है ? संतरी उस की बात को समझा नहीं, वह उसे भगाने के विचार से डांटने लगा। यह ऊंचा स्वर जहांगीर बादशाह ने तम्बू में सुन लिया। सिक्ख उस संतरी की मिन्नत कर रहा था, मुझे दर्शनों के लिए जाने दो। मैं बहुत दूर से आया हूं। मैंने सच्चे पातशाह के दर्शन करने हैं। किन्तु संतरी मान ही नहीं रहा था। इस पर बादशाह ने तुरन्त संतरी को आवाज लगा कर कहा – इसे अन्दर आने दो।
सिक्ख तम्बू के अन्दर पहुंचा। उसने कभी पहले श्री गुरू हरिगोविन्द जी को देखा नहीं था। उसने बादशाह को गुरू जी समझ कर वह घास की गांठ भेट में रख दी और दो पैसे (तांबे के सिक्के) आगे रखकर मस्तिष्क झुका दिया और विनती करने लगा। हे गुरूदेव ! आप कृपया मुझ गरीब की यह तुच्छ भेंट स्वीकार करें और मुझे इस भवसागर में आवागमन के चक्रव्यू से मुक्त करें। अब बादशाह चक्कर में फंस गया कि वह इस सिक्ख की मांग को कैसे पूरा करे क्योंकि वह तो भवसागर के आवागमन में स्वयं फंसा हुआ है। उसने सिक्ख को फुसलाने के विचार से कहा – हे सिक्ख आप कोई और वस्तु मांग ले जैसे हीरे मोती, जमीन-राज्य अथवा सोना, चांदी इत्यादि, मैं वह तो दे सकता हूं, परन्तु मेरे पास मोक्ष नहीं है। यह सुनते ही सिक्ख चौंका, वह सतर्क हुआ। उसने पूछा कि आप छटे गुरू हरिगोविन्द नहीं हैं ? उत्तर में बादशाह ने कहा कि नहीं, उनका तम्बू कुछ दूरी पर वह सामने है। यह सुनते ही उस सिक्ख ने वह घांस की गांठ व तांबे का सिक्का वहां से उठा लिया। इस पर जहांगीर ने कहा – यह तो मुझे देते जाओ इसके बदले कुछ धन-सम्पत्ति मांग लो, किन्तु सिक्ख अडिग रहा। वह जल्दी से वहां से निकल कर गुरूदेव के शिविर में पहुंचा। बादशाह के हृदय में जिज्ञासा उत्पन्न हुई, वह सोचने लगा कि चलो देखते हैं, इसे इस के गुरू कैसे कृतार्थ करते हैं।
सिक्ख पूछता हुआ गुरूदेव के तम्बू में पहुंचा, उस समय गुरूदेव आसन पर विराजमान थे। उसने उसी प्रकार पहले वह घास की गांठ फिर वही सिक्के भेंट किये और मस्तिष्क झुका कर उसने यह निवेदन किया कि हे गुरूदेव ! मुझ नाचीज़ का जन्म-मरण निवारण करे। तभी गुरूदेव ने खड़े होकर उस सिक्ख को सीने से लगाया और उसे सांत्वना देत हुए कहा – हे सिक्ख तुम्हारी श्रद्धा रंग लाई है। आपको अब पुर्नजन्म नहीं लेना होगा, अब आप प्रभु चरणों में स्वीकार्य हुए। इस पर सिक्ख ने कहा – हे गुरूदेव ! मैं पहले भूल से शायद बादशाह के तम्बू में चला गया था, वह मुझे बहला-फुसला रहा था, किन्तु मैं उसकी बातों में नहीं आया। यह सब दृश्य छिपकर बादशाह देख रहा था। इसके पश्चात् उस के मन का संशय निवृत्त हो गया कि सच्चा पातशाह कौन है ?