श्री गुरु हरगोबिन्द जी - Shri Guru Hargobind Sahib Ji

प्रथम युद्ध (Shri Guru Hargobind Ji)

सम्राट जहाँगीर की मृत्यु के पश्चात् श्री गुरू हरि गोविन्द साहब के प्रशासन के साथ सम्बन्धों में वह मधुरता न रही। धीरे धीरे कट्टरपंथी हाकिमों के कारण तनाव बनता चला गया। एक बार गुरूदेव अमृतसर से उत्तर-पश्चिम की ओर जंगलों में शिकार खेलने के विचार से अपने काफिलने के साथ दूर निकल गये। इतफाक से उसी जंगल में लाहौर का सुबेदार (राज्यपाल) भी अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ आया हुआ था। दोनों पक्षों के शिविर तो बहुत दूर थे किन्तु उनके बाज जो कि वायुमण्डल में शिकार के लिए छोड़े गये थे, आपस में भिड़ गये। देखते ही देखते गुरूदेव का बाज विपक्षी बाज को पराजित करके अपने खेमे में ले आया। सिक्यों ने सरकारी बाज विजयता के रूप में पकड़ लिया। जब राज्यपाल कुलीन खान का बाज वापिस नहीं लौटा तो उसे सिपाही उधर ढूंढते हुए आये तो उन्होंने पाया कि वह बाज सिक्खों के पास है। सिपाहियों ने बाज लौटाने के लिए कहा – इस पर सिक्खों ने तर्क दिया कि शिकार के नियमों अनुसार आप का बाज पराजित होकर हमारे खेमे में पहुंचा है। अतः बाज हमारा हुआ। (इस खेल में भी पतंगबाजी के नियम लागू होते हैं) किन्तु सिपाही नहीं माने। वे बाज बलपूर्वक हथियाना चाहते थे किन्तु सिक्खों ने ऐसा नहीं होने दिया। दोनों पक्षों में इस बात को लेकर बहुत विवाद हुआ। परिणामस्वरूप सरकारी सैनिक धमकी देकर लौट गये और कह गये कि बाज न लौटाने के बदले में युद्ध के लिए तैयार रहो।

लाहौर के राज्यपाल कुलीज खान ने इस घटना को अपने लिए चुनौती माना और उसने गुरूदेव पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। युद्ध का नेतृत्त्व मुखलस खान ने सम्भाला और उसने घोषणा की वह सिक्खों के पीर (गुरू जी) को जीवित ही पकड़ लायेगा। वह सात हजार सैनिक लेकर अमृतसर पर आक्रमणकारी हुआ। इस बीच लाहौर की संगत ने गुरूदेव को सूचना भेजी की कि मुखलस खान विशाल सैन्य बल लेकर आप पर विजय प्राप्त करने के लक्ष्य से अमृतसर की ओर बढ़ रहा है। बस फिर क्या था, समय रहते गुरूदेव ने नगर खाली करवा लिया और मोर्चाबन्दी प्रारम्भ कर दी। किला लौहगढ़ में सभी प्रकार की तैयारियां पूर्ण कर ली गई। वहां एक कारीगर ने एक काठ की तोप बना कर गुरूदेव के समक्ष प्रस्तुत की। इसकी विशेषता यह थी कि इस के अन्दर एक विशेष धातु की चादर मढ़ी हुई थी। जो तोप के गोलों को अचूक फेंकने में सहायक सिद्ध होती थी । इतफाक से गुरूदेव की बेटी कुमारी वीरो जी का शुभ विवाह निश्चित था अगले दिन बारात ने आना था परन्तु सदैव प्रभु इच्छा पर न्यौछावर होने वाले गुरूदेव प्रसन्नचित थे। वह बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने अपने सभी जवानों को प्रोत्साहित किया और अपने परिवार के सदस्यों को झबाल ग्राम भेज दिया। यहां का चौधरी लंगाह जी गुरूदेव का परमभक्त था। दूसरी ओर समधी को संदेश भेजा कि वह बारात झंबाल गांव लेकर पहुंचे । अब युद्ध में दो-दो हाथ करने का समय आ गया था। रणक्षेत्रा में जाने से पहले गुरूदेव ने पहले स्नान करके दरबार साहब में उपस्थित होकर गुरू चरणों में प्रार्थना की। फिर परिक्रमा करके रणक्षेत्रा की ओर चल दिये।

मुखलस खान का लक्ष्य था कि सर्वप्रथम अमृतसर नगर की घेराबन्दी की जायेगी और प्रातःकाल नगर पर धावा बोलकर पीर को गिरतार कर लिया जायेगा। और दोपहर तक सब काम निपटाकर लाहौर लौट आयेंगे। किन्तु उस की योजनाओं पर पानी फिर गया। अमृतसर की सीमा में प्रवेश करते ही लौहगढ़ के जवानों ने उसकी सेना को भारी क्षति पहुचाई। उनकी लकड़ी की तोप बहुत काम आई। किन्तु किले के भीतर न अधिक जवान थे न गोला सिक्का । अतःजल्दी ही शत्रशु का किले पर नियन्त्रण हो गया। परन्तु वहां शत्रु के हाथ निराशा के अतिरिक्त कुछ नहीं लगा। वे बढ़ते हुए गुरूदेव के निवास स्थान पर पहुंचे। वहाँ मिठाइयां के अम्बार लगे हुए थे किन्तु दूर दूर तक कोई व्यक्ति नहीं दिखाई देता था। अतः शशु ने समझा गुरूदेव और उनकी सेना यह क्षेत्रा छोड़ कर चले गये हैं, इसलिए भूख के कारण उन्होंने सभी मिठाइयों को अपना आहार बनाया और वहीं सो गये। दूसरी तरफ सूर्य उदय होते ही गुरूदेव ने शाही सेना पर आक्रमण करने के आदेश दे दिये। जब मुखलस खान की सेना को दबोच लिया गया तो उनकी नींद खुली, तब तक शाही सेना की भारी क्षति हो चुकी थी जब मुखलस खान के सैनिकों ने मोर्चा सम्भाला तब सिक्ख सैन्यबल उन पर भारी हो चुके थे। शाही सेना यह देखकर परेशान थी कि गुरूदेव के जवान समर्पित होकर शहीद होने की तीव्र इच्छा से लड़ते। थे। उनमें लेशमात्रा भी मृत्यु का भय नहीं था जबकि शाही सेना केवल अपनी जीविका को चिरस्थाई बनाने के लक्ष्य को लेकर अपने प्राणों को । सुरक्षित करते हुए लड़ते थे। अतः शाही सेना लड़खड़ा गई। उनके पैर उखड़ने लगे। जबकि संख्या अथवा अनुपाल की दृष्टि से वह गुरूदेव के जवानों से तीन गुणा थे। शाही सेना हैरान-परेशान थी कि साधारण दिखने वाले देहाती इतने वीर कैसे हो गए ? दूसरी तरफ मुखलस खान अपने सिपाहियों को ललकार-ललकार कर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहा था किन्तु उसके सैनिकों के पास न दृढ़ साहस था न दृढ विश्वास । वे । जल्दी ही रक्षात्मक युद्ध लड़ने लगे। मुखलस खान की योजनाएं क्षण भर में खटाई में पड़ गई। वह अपने स्वप्नों को नष्ट होते देख रहा था। भले ही इस घमासान युद्ध में गुरूदेव के बहुत से योद्धा वीरगति पा गये किन्तु मरते मरते शशु सेना को लोहे के चने चबवा गये। शाही सेना यह अनुभव कर रही थी कि उनको यह पहला अवसर देखने को मिला है जहाँ इतना कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा हो। लम्बे चले संग्राम में मुखलस खान के वरिष्ठ अधिकारी धीरे धीरे मौत के घाट उतारे जा रहे थे। दोपहर होते होते वह अकेला ही रह गया। अतः कोई चारा न देख कर वह स्वयं रणक्षेत्रा में आगे बढ़ा। दूसरी तरफ गुरूदेव भी अपने साथ पैंदे खान और । विधि चन्द को लेकर आमने सामने हुए। गुरूदेव की तरफ से पैदे खान, मुखलस खान का सहायक सुलतान बेग आपस में भिड़ गये। मुखलस खान का घोड़ा गुरूदेव की तलवार से कट मरा। मुखलस खान पैदल हो गया इसलिए गुरूदेव ने भी घोड़ा त्याग दिया और मुखलस खान को ललकारा लो पहला वार कर लो कहीं मन में शंका न रहे कि मौका ही नहीं मिला। मुखलस खान ने पूरे दांव लगा कर वार किया परन्तु गुरूदेव पैंतरा बदल कर वार रोक गये और घूम कर ऐसा वार किया कि मुखलस ख़ान वहीं ढेर हो गया। बस फिर क्या था शाही सेना देखते ही देखते भाग खड़ी हुई और मैदान गुरूदेव जी के हाथ लगा।

शाही सेना की पराजय की सूचना जब सम्राट शाहजहाँ को मिली तो उसे बहुत हीनता अनुभव हुई। उसने तुरन्त इस पूर्ण दुखान्त ब्यौरा मँगवाया और अपने उपमंत्री वजीर खान को पंजाब भेजा। जैसा कि विदित है कि वजीर खान गुरू घर का श्रद्धालु था और वे समस्त सत्य तथा तथ्यपूर्ण विवरण सहित बादशाह शाहजहाँ को लिख भेजा कि यह युद्ध गुरूदेव पर थौपा गया था। वास्तव में उनकी पुत्री का उस दिन शुभ विवाह था। वह तो लड़ाई के लिए सोच भी नहीं सकते थे। शाहजहाँ अपने पिता जहाँगीर से गुरू उपमा प्रायः सुनता ही रहता था। अतः वह शान्त हो गया किन्तु उसने लाहौर के राज्यपाल को उसकी इस भूल पर स्थानान्तरित कर दियाँ।

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