श्री गुरु हरगोबिन्द जी - Shri Guru Hargobind Sahib Ji

शाही सेना के साथ चौथा और अन्तिम युद्ध (Shri Guru Hargobind Ji)

पिछले अध्यायों में आप पैंदे खान का विवरण पढ़ चुके हैं कि श्री गुरू हरिगोवन्दि साहब जी ने इस अनाथ किशोर को अपनी सेना में भर्ती कर लिया था। उसने अमृतसर के प्रथम युद्ध में बहुत वीरता दिखाई, किन्तु इसे अपने बाहुबल पर बहुत अभिमान हो गया था। उस का विचार था कि उसी के कारण गुरूदेव इस प्रथम युद्ध में विजीय हुए हैं।

जैसे ही गुरूदेव को उसकी अभिमानपूर्ण बातों का पता चला तो उन्होंने उस की शादी करवा कर उसे उसके गाँव कुछ समय के लिए विश्राम करने भेज दिया। दूसरे और तीसरे युद्ध के समय इसे जानबूझ कर नहीं बुलाया गया क्योंकि गुरूदेव अभिमान के बड़े विरोधी थे। समय के अन्तराल में उस के घर दो बच्चों ने जन्म लिया, पहली लड़की दूसरा बच्चा लड़का था। लड़की को जब गुरूदेव की गोदी में डाला गया तो उन्होंने भविष्यवाणी की कि यह कन्या पिता तथा मुगल सत्ता पर भारी रहेगी। समय के अन्तराल में जब लड़की युवती हुई तो उस का विवाह पैदे खान ने उसमान खान नामक युवक से कर दिया। जिस के पिता लाहौर में प्रशासनिक अधिकारी थे। उसमान खान अपने ससुराल में अधिक सुख-सुविधाओं के कारण घर जंवाई बनकर रहने लगा। उसमान खान लालची प्रवृत्ति का व्यक्ति था, वह ससुर के माल को हथियाने में ही अपनी योग्यता समझता था।

एक बार वैशाखी के पर्व पर चतुरसैन नामक श्रद्धालु ने गुरूदेव को कुछ बहुमूल्य उपहार भेंट किये। इनमें ऐ सक सुन्दर घोड़ा, एक बाज़ पक्षी तथा एक सैनिक वर्दी इसके अतिरिक्त अन्य दुर्लभ वस्तुएं थी। गुरू परम्परा अनुसार इन वस्तुओं को गुरूदेव सुयोग्य व्यक्तियों में बांट देते थे। इस बार आपने घोड़ा तथा सैनिक वर्दी पैदे खान को दे दी और आदेश दिया, इसे पहन कर दरबार में आया करो। बाज़ को गुरूदेव ने अपने बड़े सुपुत्रा श्री गुरूदिता जी को सौंप दिया। पैंदे खान ने जब वह विशेष वर्दी धारण की तो उसका सौन्दर्य देखते ही बनता था। गुरूदेव उस की अनुपम छटा पर रीझ उठे और पुनः आदेश दिया कि इसे धारण करके ही दरबार में आया करो। किन्तु हुआ इस के उलट। पैंदे खान के दामाद उस्मान खान ने यह दोनों उपहार उससे हथिया लिये। इस पर दामाद ससुर में बहुत कहा-सुनी हुई परन्तु पैंदेखान की पत्नी और बेटी ने उस्मान खान का साथ देकर उसे बढ़ावा दिया , जिस कारण पैदे खान बेवश होकर रह गया। गुरूदेव ने उसे कई बार वर्दी में न आने का कारण पूछा, किन्तु वह हर बार कोई न कोई बहाना बना कर बात को टाल देता था। एक दिन कुछ सिक्खों ने वह वर्दी उस के दामाद को पहन कर शिकार पर जाते देखा। इस बीच उस के दामाद ने श्री गुरूदिता जी का बाज़ पकड़ कर घर के एक कमरे में छिपा कर रख लिया। यह बात गुरूदेव जी को बताई गई, उन्होंने तुरन्त पैंदे खान को बुला लिया और उसे आदेश दिया कि उस्मान खान से बाज वापिस लेकर आये। उसने उस्मान खान को बहुत मनाने की कोशिश की किन्तु वह नहीं माना, उल्टा ससुर पर दबाव डाला कि वह झूठ बोल दे कि बाज़ मेरे पास नहीं है। पैदे खान पर इस बात के लिए उसकी पत्नी तथा बेटी ने भी बहुत दबाव डाला कि वह किसी तरह झूठ बोलकर उस्मान खान को बाज की चोरी से बचा ले । मरता क्या ना करता की कहावत अनुसार पैदे खान ने गुरू दरबार में झूठी कसम खाई कि बाज उस्मान खान के पास नहीं है। इस पर श्री गुरूदिता जी के साथियों ने उस्मान खान के घर की तलाशी ली और बाज बरामद कर लिया। अब पैंदे खान को बहुत नीचा देखना पड़ा। वह अर्श से फर्श पर गिर पड़ा था, उसे मुंह छिपाने के लिए स्थान नहीं मिल रहा था। उसे पश्चाताप में क्षमा माँगनी चाहिए थी, किन्तु वह क्रोध में गुरूदेव से उलझ पड़ा। इस पर सिक्खों ने उसे धक्के मारकर वहाँ से भगा दिया।

भारी अपमान के कारण पैदे खान भ्रष्ट आचरण पर उतर आया, उसे उसके दामाद उस्मान खान ने गुमराह किया कि हमें गुरू जी से अपमान का बदला लेना चाहिए, वे दोनों योजना बना कर जालन्धर के सूबेदार (राज्यपाल) कुतुब खान से मिले कि हमारी सहायता की जाये, हम गुरू घर के भेदी हैं, हमारे ही बल पर गुरू ने युद्धों में विजय प्राप्त की है। यदि हमें पर्याप्त सेना मिल जाये तो हम गुरू जी को जीत कर शाही सेना की पराजय का बदला चुका सकते हैं जालन्धर के सूबेदार ने उन्हें सुझाव दिया कि इस समय बादशाह शाहजहाँ लाहौर आया हुआ है, तुम वहाँ जाकर अपनी फरियाद करो और उन्हें अपनी योजना बताओ, यदि वह तुम्हारी योजना पर स्वीकृति प्रदान करते हैं तो मैं तुम्हें हर सम्भव सहायता करूंगा।

पैंदे खान और उस्मान खान लाहौर पहुँचे किन्तु उन्हें बादशाह तक पहुँचने ही नहीं दिया गया, इस बीच उनकी करतूतों का कच्चा चिट्ठा बादशाह के निकटवर्ती मंत्री वजीर खान को मालूम हो गया। वह गुरूजनों पर बहुत श्रद्धा रखता था, उसने बादशाह शाहजहाँ को बता दिया कि कुछ नमक हराम आप से मिलना चाहते हैं, जिन्हें गुरू हरिगोविन्द जी ने अपने बच्चोंकी तरह पाला है और वह गददारी करके शाही फौज को जितवाना चाहते हैं यह सुनकर बादशाह सतर्क हुआ, तभी सूचना मिली कि सम्राट का बड़ा बेटा दारा शिकोह सख्त बीमार है। अतः बादशाह को जल्दी ही दिल्ली लौटना पड़ गया, उसका सहायक मंत्री वजीर खान भी उसके साथ दिल्ली लौट गया। उनके दिल्ली लौटने पर पैदे खान और उसके दामाद को एक शुभ अवसर मिल गया। वे दोनों स्थानीय प्रशासक को मिले। उसने इस विषय पर अपने सेनानायकों की सभा बुलाई, उस में प्रत्येक विषयों पर गम्भीरता से विचार किया गया। अन्त में निर्णय यह हुआ कि यदि जालन्धर इत्यादि सूबों से सेना मिला ली जाये तो संयुक्त सैन्यबल, घर के भेदी की सहायता से विजय प्राप्त रि सकते है। इस अभियान का नेतृत्त्व काले खान ने सम्भाला। यह सेनापति पहले मारे गये मुख्लिस खान का भाई था। संयुक्त सेना ने करतारपुर को घेरनेकी गुप्त योजना बनाई। किन्तु समय रहते लाहौर के सिक्खों ने गुरूदेव को पहले सूचित कर दिया।

| युद्ध की सम्भावना को देखते हुए गुरूदेव जी ने भी राय जोध इत्यादि अनुयायियों को संदेश भेजकर समय रहते उपस्थित होने का ओदश दिया। काले खान तथा उसके सहायक सेनानायकों ने जिसमें जालन्धर का कुतुब खान भी सम्मिलित था, योजना अनुसार करतारपुर को घेरना प्रारम्भ कर दिया। किन्तु गुरूदेव का सैन्य बल इन चालों के लिए सतर्क था, उन्होंने तुरन्त घेराबन्दी को छिन्न-भिन्न कर दिया। अब युद्ध आमने सामने का प्रारम्भ हो गया। पूरे दिन भर घमासान युद्ध होता रहा किन्तु कोई परिणाम न निकला। अगले दिन एक सैनिक टुकड़ी का नायक अनवर खान जो कि पिछले युद्ध में मारे गये लल्लाबेग का भाई था। गुरूदेव के सेना नायक को द्वंद्व युद्ध के लिए चुनौती देने लगा। भाई विधिचन्द ने उसकी ललकार को स्वीकार कर लिया। इस युद्ध में भले ही विधिचन्द घायल हो गये किन्तु उन्होंने अनवर खान को मृत्यु शैया पर सुला दिया। सेनानायक अनवर खान की मृत्यु के तत्काल ही शत्रु सेना ने पूरे जोश से भरपूर आक्रमण कर दिया। इस भारी आक्रमण को विफल करते हुए गुरूदेव की एक सैन्य टुकड़ी के नायक भाई लखू जी शहीदी प्राप्त कर गये। इस पर भाई रायजोध जी व जीत मल इत्यादि नायकों ने शाही सेना को आगे बढ़ने से रोकने के लिए अपने सैनिक दीवार की तरह खड़े कर दिये । युद्ध में मृत्यु का तांडव नृत्य हो रहा था, भूमि रक्तसे लाल हो गई थी। सभी दिशाओं से मारो-मारो की भयंकर ध्वनि गूंज रही थी। इन परिस्थितियों में गुरूदेव के बड़े बेटे श्री गुरूदिता जी व छोटे बेटे त्यागमल जी, (जो बाद में तेग बहादुर के नाम से सँसार में प्रसिद्ध हुए अपने अस्त्रा शस्त्रा लेकर रणक्षेत्रा में जूझने पहुँच गये। इस आमनेसामने के घमासान युद्ध में सिक्ख नायकों के हाथों काले खान और कुतुब खान दोनों मारे गये। श्री गुरूदिता जी व त्यागमल जी ने अपने बाहुबल के कई करतब दिखाये, वे जहाँ निकल जाते, शत्रुओं के शवों के ढेर लग जाते, इसी बीच पैंदे खान घोड़ा भगाकर गुरूदेव के सम्मुख आ खड़ा हुआ और गुरूदेव को चुनौती देने लगा। इस पर गुरूदेव ने उसे कहा – आओ, बरखुदार हम तुम्हारी ही प्रतीक्षाकर रहे थे। लो पहले तुम्हीं अपने मन का चाव पूरा कर लो और करो वार, तभी पैंदे खान ने दांव लगा कर पूरे जोश में गुरूदेव पर तलवार से वार किया, किन्तु गुरूदेव ने पैंतरा बदल कर वार से बचाव कर लिया। तब भी गुरूदेव शांत बने रहे, उन्होंने फिर पैदे खान को एक अवसर और प्रदान किया और कहा – लो कहीं तुम्हारे मन में यह लालसा न रह जाये कि अगर एक और मौका मिल जाता तो मैं सफल हो जाता ? अच्छा एक और वार कर लो। अकृतघ्न पैदे खान को तब भी शर्म नहीं आई, उसने पूरी सावधानी से गुरूदेव पर वार किया, जिसे गुरूदेव ने अपनी ढाल पर रोक लिया। किन्तु पैंदे खान की तलवार दो टुकड़े हो गई। अब पैंदेखान ने गुरूदेव के घोड़े की लगाम पकड़ ली और दूसरे हाथ से उनके पेट में खंजर से वार करने लगा, तब तक गुरूदेव ने उसे मुंह पर लात मारी, वह पटकी खा कर नीचे गिर गया, किन्तु जल्दी ही सम्भल कर उनके घोड़े के नीचे घुस गया। उसने अपना पुराना दांव चला, वह घोड़े को उठाकर पलट देना चाहता था किन्तु गुरूदेव ने एक ओर से उसके सिर पर पूरे बल के साथ ढ़ाल दे मारी, जिससे उसका सिर फट गया। वह भूमि पर सो गया। गुरूदेव घोड़े से उतरे और उसके मुंह पर ढ़ाल से छाया करते हुए कहने लगे – पैंदे खान तुम्हारा अन्तिम समय है लो कलमा पढ़ लो पुँदै खान की मूर्छा टूटी तो उसने कहा – गुरूदेव मुझे क्षमा करना, मेरा कलमा तुम्हारी कृपा दृष्टि ही है। इस प्रकार वह प्राण त्याग गया। पैंदेखान के मरते ही बची हुई शाही सेना भाग गई। गुरूदेव के शिविर में विजय के उपलक्ष्य में हर्षनाद किया गया।

गुरूदेव जी ने तब बिना भेदभाव के सभी घायलों की सेवा का कार्य अपने हाथों लिया और मृत सैनिकों को उनकी परम्परा अनुसार अन्तिम सँस्कार कर दिया। तद्पश्चात् आपने अपने विजयी तथा मृत अनुयायियों को प्रोत्साहित करने के लिए सभी को बड़े बड़े सम्मान से अलंकृत किया और बहुत से उपहार बाँटे। आपने अपने छोटे पुत्रा त्याग मल की वीरता की खूब प्रशंसा की और उनको नया नाम दिया। आपने कहा – तू त्याग मल नहीं तेग बहादुर है। युद्ध के समय उनकी आयु केवल १४ वर्ष की थी। यह युद्ध गुरूदेव ने सन् १६३४ में जीता था। इस युद्ध की समाप्ति के कुछ समय पश्चात् आपने करतारपुर से कीरतपुर निवास कर लिया।

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