श्री गुरु हरगोबिन्द जी - Shri Guru Hargobind Sahib Ji

गुरूदेव जी का शाही सेना से तृतीय युद्ध (Shri Guru Hargobind Ji)

काबुल नगर की संगत से बलपूर्वक हथियाए गये घोड़े शाही अस्तबल लाहौर के किले में से एक एक करके युक्ति से गुरू का परम सेवक विधि चन्द लेकर गुरूदेव के चरणों में उपस्थित हुआ और उसने गुरूदेव को बताया कि इस बार उसने आते समय सरकारी अधिकारियों को सूचित कर दिया है कि वह घोड़े कहाँ ले जा रहा है। इस पर गुरूदेव ने अनुमान लगा लिया कि अब एक और युद्ध की सम्भावना बन गई है। अतः उन्होंने समय रहते तैयारियां प्रारम्भ कर दी।

जब लाहौर के किलेदार ने स्थानीय राज्यपाल (सूबेदार) को सूचित किया कि श्री हरिगोविन्द जी ने वे दोनों घोड़े युक्ति से प्राप्त कर लिये हैं। तो वह विवेक खो बैठा, उसे ऐसा अहसास हुआ कि किसी बड़ी शक्ति ने प्रशासन को चुनौती दी हो। वैसे तो घोड़ों की वापसी से बात समाप्त हो जानी चाहिए थी किन्तु सत्ता के अभिमान में सूबेदार ने गुरूदेव की शक्ति को क्षीण करने की योजना बना कर, उन पर विशाल सैन्य बल से आक्रमण करने के लिए अपने वरिष्ठ सेना अधिकारी लल्ला बेग के नेतृत्व में बीस हजार जवान भेजे।

श्री गुरू हरिगोविन्द साहब जी उन दिनों प्रचार अभियान के अन्तर्गत मालवा क्षेत्रा के काँगड़ा गाँव में पड़ाव डाले हुए थे। लल्ला बेग के आने की सूचना पाते ही गुरूदेव ने वहाँ के जागीरदार रायजोध के सुझाव पर नथाणों गाँव चले गये। यह स्थान सामरिक दृष्टि से अति उत्तम था। यहाँ एक जलाशय था, जिस पर गुरूदेव ने कब्जा कर लिया। दूर दूर तक उबड़ खाबड़ क्षेत्रा तथा घनी जंगली झाड़ियों के अतिरिक्त कोई बस्ती न थी इस समय गुरूदेव के पास लगभग तीन हजार अनुयायीयों की सेना थी, जैसे ही युद्ध का बिगुल व नगाड़ा बजाया गया, संदेश पाते ही कई अन्य श्रद्धालु सिख घरेलु शस्त्रा लेकर जल्दी ही गुरूदेव के समक्ष उपस्थित हुए। सभी को थर्म युद्ध में मन मिटने का चाव था।

लाहौर से लल्ला बेग सेना लेकर लम्बी दूरी तय करता हुआ और गुरूदेव को खोजता हुआ, कुछ दिनों में इस जंगली क्षेत्रा में पहुंच गया। उसने आते ही हसन अली को सूचनाएं एकत्रित करने के लिए गुप्तचर के रूप में गुरूदेव के शिविर में भेज दिया। किन्तु स्थानीय जनता से भिन्न दिखने पर जल्दी ही उसे दबोच लिया गया और उससे ही उलटे शाही सेना की गतिविधि की सूचनाएं प्राप्त कर ली गई। उसने बताया कि शाही सेना ऐश्वर्य की आदि है, वह इस पठारी क्षेत्रा में बिना सुविधाओं के लड़ नहीं सकती, उन के पास अब रसद पानी की भारी कमी है। वे तो केवल संख्या के बल पर युद्ध जीतना चाहते हैं जब कि युद्ध में दृढ़ता और विश्वास चाहिए।

लल्ला बेग और उसकी सेना रास्ते भर अपनी मश्कों से शराब सेवन करती चली आ रही थी, जब गुरूदेव के शिविर के निकट पहुँचे तो उन को पानी की कमी का अहसास हुआ, किन्तु पानी तो गुरूदेव के कब्जे में था। लल्ला बेग पानी की खोज में भरकने लग पानी तो गुरूदेव के कब्जे में था। लल्ला बेग पानी की खोज में भटकने लगा। तभी घात लगा कर बैटे गुरू के योद्धाओं ने उन्हें घेर लिया और गोली बारी में भारी क्षति पहुँचाई। अब शाही सैन्य बल के पास केवल छप्पड़ों (तालाबों का गंदा पानी ही था, जिस के बल पर उन्हें युद्ध लड़ना था। युद्ध से पहले ही बहुत से सैनिक भोजन के अभाव व गंदे पानी के कारण अमाशय (अपच) रोग से पीड़ित हो गये। उपयुक्त समय देखकर गुरूदेव के योद्धाओं ने गुरू आज्ञा प्राप्त कर शत्रशु सेना पर धावा बोल दिया। दूसरी तरफ शाही सेना इस के लिए तैयार न थी। वे लम्बी यात्रा की थकान महसूस कर रहे थे। जल्दी ही घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया। शाही सेना को इस की आशा नहीं थी, वे सोच रहे थे कि विशाल सैन्य बल को देखते ही शगु भाग जाएगा किन्तु उन्हें सब कुछ विपरीत दिखाई देने लगा। जिस कारण वे जल्दी ही साहस खो बैठे और इधर उधर झाड़ियों की आड़ में छिपने लगे। गुरूदेव के समर्पित जांबाजों ने शाही सेना को खदेड़ दिया। शाही सेना को पीछे हटता देखकर लल्ला बेग को आशंका हुई कि कहीं सेना भागने न लग जाए। उसने सेना का नेतृत्त्व स्वयँ सम्भाला और शाही सेना को ललकारने लगा। किन्तु सब कुछ व्यर्थ था, शाही सेना मनोबल खो चुकी थी। जबकि शाही सेना गुरूदेव के जवानों से पाँच गुणा अधिक थी। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए गुरूदेव के योद्धाओं ने रातभर युद्ध जारी रखा, परिणामस्वरूप सूर्य उदय होने पर चारों ओर शाही सेना के शव ही शव दिखाई दे रहे थे। लल्ला बेग यह भयभीत दृश्य देखकर मानसिक सन्तुलन खो बैठा। वह आक्रोश में अपने सैनिकों को धिक्कारते हुए आगे बढ़ने को कहता, किन्तु उसी की सभी चेष्टाएं निष्फल हो रही थी। उसके सैनिक केवल अपने प्राणों की रक्षा हेतु लड़ रहे थे। वह गुरूदेव के जवानों से लोहा लेने की स्थिति में थे ही नहीं इस पर लल्ला बेग ने अपने बचे हुए अधिकारियों को एकत्रित कर एक साथ गुरूदेव पर धावा बोलने को कहा – ऐसा ही किया गया। उधर गुरूदेव और उनके योद्धा इस मुठभेड़ के लिए तैयार थे। एक बार फिर युद्ध पूर्ण रूप से घमासान रूप ले गया। दोनों तरफ से रणबांके विजय अथवा मृत्यु के लिए जूझ रहे थे। गुरूदेव स्वयं रणक्षेत्रा में अपने योद्धाओं का मनोबल बढ़ा रहे थे। इस मृत्यु के तांडव नृत्य में योद्धा खून की होली खेल रहे थे कि तभी लल्ला बेग ने गुरूदेव को आमने सामने होकर युद्ध करने को कहा – गुरू देवतो ऐसा चाहते ही थे, उन्होंने तुरन्त चुनौती स्वीकार कर ली। गुरूदेव ने अपनी मर्यादा अनुसार लल्ला बेग से कहा – लो तुम्हीं पहले वार कर के देख लो कहीं कोई मन में हसरत न रह जाए कि गुरू को मारने के लिए मौका ही नहीं मिला। फिर क्या था ? लल्ला बेग ने पूर्ण तैयारी से गुरूदेव पर तलवार से वार किया किन्तु गुरूदेव पैंतरा बदल कर वार झेल गये। अब गुरूदेव ने पूर्ण विधिपूर्वक वार किया, जिसके परिणाम स्वरूप लल्लाबेग के दो टुकड़े हो गये और वह वहीं ढेर हो गया।

लल्लाबेग मारा गया है – यह सुनते ही शत्रशु सेना भाग खड़ी हुई। इस प्रकार यह युद्ध गुरूदेव के पक्ष में हो गया और शाही सेना पराजय का मुँह देखकर लौट गई।

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