श्री गुरु हरगोबिन्द जी - Shri Guru Hargobind Sahib Ji

कुमारी कौलां गुरू शरण में (Shri Guru Hargobind Ji)

श्री गुरू हरिगोविन्द जी से विदा लेकर सम्राट लाहौर पहुँच तो गया किन्तु उस का मन नहीं लगा वह गुरूदेव से स्नेह करने लग गया था। अतः उसने समीप्ता प्राप्त करने के विचार सेअपने निकटवर्ती उपमंत्री वजीर खान को अमृतसर भेजा कि गुरूदेव को कुछदिन के लिए लाहौर ले आये। उनके द्वारा विनती लिख भेजी कि मेरा स्वास्थ्य बिगड़ गया है, कृपया कश्मीर जाने से पहले एक बार पुनः दर्शन देकर कृतार्थ करें गुरूदेव जी उसकी विनती सहर्ष स्वीकार करके लाहौर पहुँच गये। वहाँ उन्होंने एक पंथ दो काज की कहावत अनुसार गुरूमति का प्रचार प्रारम्भ कर दिया। आपको भुजंग नामक स्थान पर ठहराया गया। इस क्षेत्रा में गुरूदेव नित्यप्रति अपने कार्यक्रम चलाने लगे। दूरदराज के निवासी आपके प्रवचन सुनने आने लगे। आपकी महिमा सुनकर स्थानीय काजी की लड़की जिस का नाम कौलां था, वह आपके सत्संग में अपने लगी। यह युवती बड़ी धार्मिक प्रवृति की थी। वह सांई मियां मीर की शिष्य थी और उनपर उसे बहुत आस्था थी। उसने प्रभु स्मरण करने की दीक्षा सांई जीसे प्राप्त की थी। जिस का वह बहुत निर्भय होकरआनन्दमय जीवन जी रही थी। युवती कौलां श्री गुरू हरिगोविन्द जी के भव्य दर्शनों तथा प्रवचनों से इस कदर मुग्ध हुईकिप्रायः उनके सत्संग में भाग लेने पहुँच जाती, इस प्रकार वह गुरूदेव की परम शिष्य बन गई।

जब इस रहस्य का काजी को मालूम हुआ तो उसने अपनी पुत्री पर प्रतिबंध लगा दिया और उसे सतर्क किया कि यदि वह गुरू के आश्रम में उनके प्रवचन सुनने जाएगी तो कड़ा दण्ड दिया जायेगा। इसपर बेटी कौलां ने विरोध किया औरकहा – ‘अब्बा हजूर, पीरों-अवतारों के प्रवचन सुनने में क्याबुराई है ?’काजी का उत्तर था’- ‘वह काफिर है’ काफिरों के साथ मेल जोल रखना पाप है। किन्तु बेटी ने बगावत कर दी और कहा – ‘अब्बा हुजूर, मुझे उनके पास जाने सेकोई रोकनहीं सकता। बेटी का यहदो टूकउत्तर सुनकर काजी की आँखों में खून उतर आया। वह दाँत भींचकर बोला, ‘अगर तुमने मेरी बात नहीं मानी तो इसका अंजाम बहुत बुरा होगा ?’ कौलांने पूछा – क्या मतलब?

काजी ने कहा – मतलब यही कि यदि तुमने दोबारा उस काफिर के पास जाने की जुर्रत की तो तुम्हारा कत्ल करवा दिया जाएगा। बाप तो धमकी देकर चला गया, किन्तु बेटी कौलां का दिल बैठ गया। भला गुरूदेव के दर्शन किए बिना उसका दिल कैसे मानता। अब क्या करे ? पिता की है मिकी निरर्थक नहीं थी। कौलां जानती थी कि यदि उसने पिता की आज्ञा की अवेहलना करते हुए गुरूदेव के सत्संग में जाने का प्रयास किया तो उसके पिता अपनी धमकी को पूरा करने में जरा भी नहीं देर नहीं लगायेंगे। समस्या का कोई समाधान न पाकर कौलां ने सांई मियांमीर की शरण ली और उन्हें काजी की धमकी से अवगत करवाया। सांई मियांमीर जी उन लोगों में से थे जो शरणागत की अवश्य ही सहायता करते थे। जब उन्होंने कौलां की दर्द भरी कहानी सुनी और गुरूदेव के प्रति उसका का अथाह स्नेह देखा तो सांई मियां मीर जी द्रवित हो उठे। वह तत्काल गुरू हरिगोविन्द जी से मिले और कौलां की व्यथा कहसुनाई। उन्होंने सुझाव दिया कि कौलां की सुरक्षा करना आपका कर्तव्य है। यदि जरा सी उसकी हिफाजत में चूक हो गई तो उसका पिता, बेटी की हत्या करवा देगा। वह आपके दर्शनों के बगैर जी नहीं सकती। अतः अपने शिष्यों की रक्षा करना आप का ही कर्त्तव्य बनता है।

श्री गुरू हरिगोविन्द धर्मान्धता के सख्त विरोधी थे। काजी का यह साम्प्रदायिक हठ उन्हें बहुत ही बुरा लगा। उन्होंने सांई मियां मीर का अनुरोध स्वीकार कर लिया और कौलां को अपने पास बुला लिया। गुरूदेव की पुकार पर कौलां दौड़ी चली आई। गुरूदेवने उसे अमृतसर भिजवा दिया और स्वयं कुछ दिनों के अन्तराल में अपने कार्यक्रम के अनुसार भुजंग क्षेत्रा से कूच कर अमृतसर लौट आये। अमृतसरमें कौलां कोएक अलग से निवास स्थान दिया गया। कौलां गुरूदेव की इस सहायता से आजीवन कृतज्ञ रही। अब वह अभय होकर गुरूदेव के दर्शन प्राप्त करती थी तथा उनके प्रवचन सुनकर उपकृत होती थी। कौलां की यह श्रद्धा भक्ति रंग लाई, जहाँ उनका निवास स्थान था, वहां उनकी स्मृति में माई कौलां के नाम से कौलसर नामक सरोवर का निर्माण किया गया। आज भी लोग उनके मार्मिक प्रसंग एक दूसरे को सुनाकर उनके त्याग को याद करते हैं। आप का देहान्त करतारपुर नगर में हुआ।

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