जब इस रहस्य का काजी को मालूम हुआ तो उसने अपनी पुत्री पर प्रतिबंध लगा दिया और उसे सतर्क किया कि यदि वह गुरू के आश्रम में उनके प्रवचन सुनने जाएगी तो कड़ा दण्ड दिया जायेगा। इसपर बेटी कौलां ने विरोध किया औरकहा – ‘अब्बा हजूर, पीरों-अवतारों के प्रवचन सुनने में क्याबुराई है ?’काजी का उत्तर था’- ‘वह काफिर है’ काफिरों के साथ मेल जोल रखना पाप है। किन्तु बेटी ने बगावत कर दी और कहा – ‘अब्बा हुजूर, मुझे उनके पास जाने सेकोई रोकनहीं सकता। बेटी का यहदो टूकउत्तर सुनकर काजी की आँखों में खून उतर आया। वह दाँत भींचकर बोला, ‘अगर तुमने मेरी बात नहीं मानी तो इसका अंजाम बहुत बुरा होगा ?’ कौलांने पूछा – क्या मतलब?
काजी ने कहा – मतलब यही कि यदि तुमने दोबारा उस काफिर के पास जाने की जुर्रत की तो तुम्हारा कत्ल करवा दिया जाएगा। बाप तो धमकी देकर चला गया, किन्तु बेटी कौलां का दिल बैठ गया। भला गुरूदेव के दर्शन किए बिना उसका दिल कैसे मानता। अब क्या करे ? पिता की है मिकी निरर्थक नहीं थी। कौलां जानती थी कि यदि उसने पिता की आज्ञा की अवेहलना करते हुए गुरूदेव के सत्संग में जाने का प्रयास किया तो उसके पिता अपनी धमकी को पूरा करने में जरा भी नहीं देर नहीं लगायेंगे। समस्या का कोई समाधान न पाकर कौलां ने सांई मियांमीर की शरण ली और उन्हें काजी की धमकी से अवगत करवाया। सांई मियांमीर जी उन लोगों में से थे जो शरणागत की अवश्य ही सहायता करते थे। जब उन्होंने कौलां की दर्द भरी कहानी सुनी और गुरूदेव के प्रति उसका का अथाह स्नेह देखा तो सांई मियां मीर जी द्रवित हो उठे। वह तत्काल गुरू हरिगोविन्द जी से मिले और कौलां की व्यथा कहसुनाई। उन्होंने सुझाव दिया कि कौलां की सुरक्षा करना आपका कर्तव्य है। यदि जरा सी उसकी हिफाजत में चूक हो गई तो उसका पिता, बेटी की हत्या करवा देगा। वह आपके दर्शनों के बगैर जी नहीं सकती। अतः अपने शिष्यों की रक्षा करना आप का ही कर्त्तव्य बनता है।
श्री गुरू हरिगोविन्द धर्मान्धता के सख्त विरोधी थे। काजी का यह साम्प्रदायिक हठ उन्हें बहुत ही बुरा लगा। उन्होंने सांई मियां मीर का अनुरोध स्वीकार कर लिया और कौलां को अपने पास बुला लिया। गुरूदेव की पुकार पर कौलां दौड़ी चली आई। गुरूदेवने उसे अमृतसर भिजवा दिया और स्वयं कुछ दिनों के अन्तराल में अपने कार्यक्रम के अनुसार भुजंग क्षेत्रा से कूच कर अमृतसर लौट आये। अमृतसरमें कौलां कोएक अलग से निवास स्थान दिया गया। कौलां गुरूदेव की इस सहायता से आजीवन कृतज्ञ रही। अब वह अभय होकर गुरूदेव के दर्शन प्राप्त करती थी तथा उनके प्रवचन सुनकर उपकृत होती थी। कौलां की यह श्रद्धा भक्ति रंग लाई, जहाँ उनका निवास स्थान था, वहां उनकी स्मृति में माई कौलां के नाम से कौलसर नामक सरोवर का निर्माण किया गया। आज भी लोग उनके मार्मिक प्रसंग एक दूसरे को सुनाकर उनके त्याग को याद करते हैं। आप का देहान्त करतारपुर नगर में हुआ।