श्री गुरु हरगोबिन्द जी - Shri Guru Hargobind Sahib Ji

माई भागभरी (Shri Guru Hargobind Ji)

श्री गुरू अर्जुन देव जी ने अपने समय में माधोदास नामक प्रचारिक को कश्मीर भेजा था कि वह वहां की जनता में गुरूमति सिद्धान्तों को प्रचार करे। इस मानुभव ने वहां एक विशेष केन्द्र बना कर सत्संगत की स्थापना की जहां नित्य प्रति कथा, कीर्तन तथा अन्य माध्यमों से गुरू मर्यादा का प्रवाह चलाया जाता रहा। आप के प्रभाव से एक स्थानीय ब्राह्मण सेवादास गुरू घर की प्रथाओं में अत्यन्त विश्वास रखने लगा। वह प्रतिदिन प्रातःकाल ‘कड़ाह प्रसाद’ तैयार करके संगत में बांटता और स्वयं निर्गुण उपासना प्रणाली के आधार अनुसार चिंतन मनन में खोया रहता। उसकी माता भी उसके इन शुद्ध कार्यों से बहुत प्रभावित हुई । जब उसे मालूम हुआ कि पांचवे गुरू जी शहीद हो चुके हैं और अब उनके स्थान पर उनके सुपुत्रा जो कि युवास्था में हैं, श्री हरगोविन्द जी उनकी गद्दी पर विराजमान हुए हैं तो उसके हृदय में एक इच्छा ने जन्म लिया कि मुझे भी गुरूदेव के दर्शन करने चाहिए। अब उनके समक्ष समस्या यह थी कि वृद्धावस्था में पँजाब कैसे जाया जाये। इस पर माता भागभरी के पुत्रा ने उन्हें बताया कि गुरू पूर्ण हैं जहाँ कहीं भी उन्हें भक्तगण याद करते हैं, वह पहुंच जाते हैं। बस फिर क्या था, माता जी ने अपनी श्रद्धा अनुसार श्री हरिगोविन्द जी को एक कुर्ता भेंट करने का लक्ष्य निर्धारित कर लिया और वह लगी उसके लिए सूत कातने फिर उन्होंने उस से वस्त्रा बनवाये और तैयार करके रख लिए, किन्तु गुरू जी नहीं आये। इस पर माता जी उन वस्त्रा को सम्मुख रखकर उनकी आरती करने लगी और हर समय गुरूदेव जी की याद में खोई रहने लगी। जब उसकी स्मृतियां वैराग्य रूप में प्रकट होकर द्रवित नेत्रा द्वारा दृष्टिमान होती तो वह प्रायः मूर्छित हो जाती, अब उनकी आयु भी कुछ अधिक हो चुकी थी। अतः वह प्रतिपल दर्शनों की अभिलाषा लिए आराधना में लीन रहने लगी।

दूसरी तरफ श्री गुरू हरिगोविन्द जी भी इस अगाध प्रेम की तड़प से रह ना सके। वह श्री दरबार साहब का कार्यभार बाबा बुड्ढ़ा जी को सौंप कर कश्मीर के लिए प्रस्थान कर गये। आप जी पहले लाहौर नगर गये। वहां से स्यालकोट पहुंचे। आपने जहां पड़ाव किया, वहां पानी नहीं था। आपने एक स्थानीय ब्राह्मण से पानी के ओत के विषय में पूछा तो उसने आपसे अनुरोध किया कि आप गुरू नानक देव जी के उत्तराधिकारी हैं। कृपया इस क्षेत्रा को पानी का दान हीं दीजिए। गुरूदेव उसके अनुरोध को अस्वीकार न कर सके। उन्होंने ब्राह्मण से कहा – तुम राम का नाम लेकर वह सामने वाला पत्थर उठाओ। ब्राह्मण ने आज्ञा मान कर ऐसा ही किया। पत्थर के नीचे से एक पेय जल का झरना उभर आया। स्थानीय निवाोिं ने इस जल श्रोत का नाम गुरूसर रखा।

आप पर्वतीय क्षेत्रों को पार कर कश्मीर घाटी के समतल मैदानों में पहुँचे तो वहां आप का स्वागत भाई कटू शाह ने किया। यह मानुभव यहां पर सिक्खी प्रचार में बहुत लम्बे समय से संलग्न थे। भाई कट्टू जी ने समस्त जत्थे की भोजन व्यवस्था इत्यादि की। वहां से गुरूदेव ने अगला पड़ाव श्रीनगर में किया। वहीं निकट ही सेवादास जी का घर था। गुरूदेव जी घोड़े पर सवार होकर श्रीनगर की गलियों में से होते हुए माता भागभरी के मकान के सामने पहुंच गये। घोड़े की टापों की आवाज सुनकर सेवादास घर से बाहर आया तो पाया कि हम जिन को सदैव याद करते रहते हैं, वह सामने खड़े हैं। बस फिर क्या था, वह सुध-बुध भूल गया और गुरू चरणों में नतमस्तक हो कर बार बार प्रणाम करने लगा तभी माता भागभरी जी को भी सूचना मिली कि गुरूदेव जी आये हैं तो वह भी गुरू चरणों में उपस्थित हुई और कहने लगी कि मेरे धन्यभाग जो आप पँजाब से यहाँ इस नाचीज के लिए पधारे हैं उसने गुरूदेव जी को घर के आंगन में पंलग बिछा दिया और वह सुन्दर पोशाक जो उसने अपने हाथ से सूत कात कर बनाई थी, गुरूदेव जी को अर्पित की। गुरूदेव प्रसन्न हुए और उन्होंने माता जी को दिव्य दृष्टि प्रदान की। माता जी को अगम्य ज्ञान हो गया। उन्होंने गुरूदेव से अनुरोध किया कि अब मेरे श्वासों की पूंजी समाप्त होने वाली है, कृपया आप कुछ दिन यहीं रहे, जब मैं परलोक गमन करूं तो आप मेरी अंत्येष्टि क्रिया में भाग लें। गुरूदेव जी ने उसे आश्वासन दिया, माता जी ऐसा ही होगा। एक उचित दिन देखकर माता जी ने शरीर त्याग दिया। इस प्रकार गुरूदेव जी ने माता जी के अन्तिम संस्कारों में भाग लेकर उनको कृतार्थ किया।

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