श्री गुरु हरगोबिन्द जी - Shri Guru Hargobind Sahib Ji

नरेश हरिसैन

श्री गुरू हरिगोविन्द के दरबार कीरतपुर में हिमाचल प्रदेश के जिला मण्डी क्षेत्रा का नरेश हरिसैन गुरू स्तुति सुनकर दर्शनों को आया। गुरू दरबार में उस समय कीर्तनी जत्था शब्द गायन कर रहा था –

लेखु न मिटई हे सखी जो लिखिआ करतारि ।।
आपे कारणु जिनि किआ करि किरपा पगु धारि ।।

नरेश ने गुरू वाणी की इन पंक्तियों पर विशेष ध्यान दिया और वह विचरने लगा। विद्याता द्वारा लिखे गये लेख हमारे जीवन की अटल सच्चाई है तो फिर महापुरूषों के दर्शनों के लिए आना अथवा शुभ कर्म करने से क्या लाभ ? यह शंका मन में लेकर वह बहुतगम्भीर हो गया। जल्दी ही उसकी प्रसन्नता निराशा में बदल गई। गुरूदेव ने इस को अपनी पैनी दृष्टि से अनुभव किया। नरेश ने गुरूदेव से वापिस जाने की आज्ञा माँगी। इस पर गुरूदेव जी ने उसे कहा – आप कुछ दिन हमारे पास रहें । हम कल शिकार खेलने चलेगें तो आप भी हमारे साथ चलें । आप का मनोरंजन हो जाएगा।

गुरूदेव के आग्रह पर नरेश ने लौटने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। रात्रि में नरेश को स्वप्न दिखाई दिया कि वह एक साधारण गाँव में खेतिहर मज़दूर है, उसका एक परिवार है, गरीबी के कारण गुजर-बसर में बहुत कठिनाइयाँ आड़े आती हैं, उस वर्ष वर्षा न होने के कारण सभी क्षेत्रों में अकाल पड़ गया है। अनाज की भारी कमी के कारण लोग भूखे मर रहे हैं। वह स्वयं भूख मिटाने के लिए जंगली फलों के एक पेड़ पर चढ़करउसके फल (पीलू) खा रहा है और ऊपर से बच्चों को तोड़ कर गिरा रहा है कि अकस्मात् एक कमजोर डाली पर पाँव पड़ने पर वह टूट जाती है और वह खेतिहर मज़दूर ऊपर से नीचे गिरते ही मर जाता है।

यह भयंकर दृश्य देख नरेश का स्वप्न टूट जाता है और उसे वास्तव में, गिरने की चोट की पीड़ा का अनुभव होता है। वह जल्दी से बिस्तर छोड़कर सतर्क होता है किन्तु वह सब तो स्वप्न था। फिर यह पीड़ा क्यों ? प्रातःकाल दाँत स्वच्छ करते समय दाँतों में जंगली फलों के टुकड़े पाये गये, जब कि नरेश ने कभी नँगली फल खाए ही नहीं थे। नरेश स्वप्न को लेकर आश्चर्य में था, किन्तु वह शांत बना रहा। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार नरेश गुरूदेव जी के साथ शिकार खेलने वनों में निकल गये। गुरूदेव जी ने आदेश दिया कि जिसके सामने शिकार पड़ जाये, वही शिकार का पीछा करे। नरेश को एक मृग दिखाई दिया। उसने मृग का पीछा किया किन्तु मृग बच निकलने में सफल हो गया परन्तु नरेश शिकारी दल से बहुत दूर निकल गया। उसे प्यास लगी, निकट ही उसे एक ग्राम दिखाई दिया, जब वह उस गाँव के निकट पहुँचा तो उसे सभी कुछ जाना पहचाना दिखाई देने लगा, तभी कुछ बच्चे खेलते हुए वहाँ पहुँचे और उन्होंने नरेश को अपने पिता रूप में पहचान लिया। नरेश ने भी अनुभव किया कि बच्चे गलत नहीं कह रहे थे क्योंकि वह उन्हें अपने स्वप्नवाले बच्चों के रूप में पहचान रहा था। नरेश इसी दुविधा में था कि गाँव के लोग इक्ट्ठे हो गये और उन्होंने उसे घर चलने का आग्रह किया। इतने में नरेश को खोजते हुए गुरूदेव व अन्य साथी वहाँ पहुँच गये। गाँव के लोग नरेश रिसैन को अपने गाँव का निवासी बता रहे थे, जबकि गुरूदेव ने उन्हें समझाया कि वह व्यक्ति तो मण्डी क्षेत्रा का नरेश है। गुरूदेव की बात पर भरोसा करके स्थानीय निवासियों ने नरेश को जाने दिया।

रास्ते में गुरूदेव जी ने नरेश से पूछा कि आपने तो अपने परिवार को पहचान लिया होगा ? नरेश ने चकित स्वर में कहा – हां, गुरूदेव ! वह कल रात वाले स्वप्न अनुसार मेरा ही परिवार था, कृपया मुझे यह पहली सुलझा कर बतायें। इस पर गुरूदेव जी ने उसे बताया कि जब आप यहाँ दरबार में पहुँचे तो आपने जो वाणी सुनी, उस क अनुसार आपके हृदय में शंका उत्पन्न हुई कि जब विद्याता का लिखा मिट नहीं सकता तो संगत अथवा महापुरूषों के दर्शनों की आवश्यकता ही क्या है ? यह सब आप की शंका का उत्तर था। आप के भाग्य में विद्याता ने एक खेतिहर मज़दूर का जीवन लिखा था जो कि सत्संग में आने से स्वप्न में पूर्ण हो गया। नरेश इस वृत्तन्त को सुनकर सन्तुष्ट होकर अपने नगर लौट गया।

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