इस क्षेत्रा का स्थानीय लगान वसूली का अधिकारी भगवान दास घेरड़, समस्त क्षेत्रा को अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति ही मानता था। जैसे ही सम्राट जहाँगीर की मृत्यु हुई और शाहजहाँ गद्दी पर बैठा तो उस की नीतियों में भी भारी परिवर्तन आया, उसने हिन्दुओं से बहुत से अधिकार छीन लिए और सिक्ख गुरूजनों से मतभेद उत्पन्न कर लिये। जैसे ही शासक लोगों से अनबन की बात भगवान दास घेरड़ को मालूम हुई तो उसे एकशुभ अवसर प्राप्त हो गया। वह चाहता था कि किसी न किसी विधि से हरिगोबिन्द पुर से सिक्खों की पकड़ ढीली पड़ जाए और वह इस क्षेत्रा से दूर हो जाए। किन्तु हुआ इसके विपरीत। श्री गुरू हरिगोविन्द साहब प्रचार दौरा करते हुए वहाँ आ गये और पुनः नगर का विकास करने लगे। इस विकास योजना में उन्होंने स्थानीय मुसलमान भाइयों की माँग पर एक मस्जिद का निर्माण करना प्रारम्भ कर दिया। मस्जिद के निर्माण की बात भगवान दास घेरड़ को अच्छी नहीं लगी। वह इन कार्यों में बाधा उत्पन्न करने के लिए अपने कुछ सहयोगियों को लेकर गुरूदेव के समक्ष आया और बहुत गुस्ताख अंदाज में वार्तालाप करने लगा। उसकी अवज्ञापूर्ण भाषा को पास में बैठे हुए सिक्खों ने अपने लिए चुनौती माना। किन्तु गुरूदेव जी ने शान्ति के संकेत के कारण मन मार कर रह गये। किन्तु भगवानदास को संतुष्टि नहीं हुई। कुछ दिन पश्चात अन्य सहयोगियों को लेकर पुनःआ धमका और फिर से गुस्ताख भाषा में धमकियां देने लगा कि तुम लोगों की प्रशासन से अनबन है। यदि तुमने इस क्षेत्रा से अपना कब्जा न हटाया तो हम बल प्रयोग करेंगे।
इतना सुनते ही इस बार सिक्खों ने उसे दबोच लिया और खूब पीटा। कुछ अधिक पिटाई हो जाने के कारण वह मृत है या जीवित, भेद करना कठिन हो गया। तभी कुछ सिक्खों ने उसे उठाकर व्यासा नदी में बहा दिया।
जब यह सूचना उसके पुत्रा रतनचंद को मिली कि तुम्हारा पिता भगवान दास सिक्खों के हाथों मारा गया है तो वह तुरन्त दीवानचंदू के पुत्रा कर्मचन्द से मिला। फिर वे दोनों जालन्धर के सूबेदार (राज्यपाल) अब्दुल खान से मिले। उन दोनों ने अब्दुल्ला खान को गुरूदेव के विरूद्ध खूब भड़काया और सहायता का अनुरोध किया। अब्दुल्ला खान तो ऐसे ही अवसरों की तलाश में था। उसे सूचना दी गई कि इस समय गुरू जी के पास फौज न के बराबर है वैसे भी उनके पास देहाती निम्न श्रेणी के लोग हैं, जो युद्ध की बात सुनते ही भाग खड़े होंगे।
राज्यपाल अब्दुल्ला, बादशाह शाहजहाँ को खुश करना चाहता था। उसने बहुत सतर्कता बरतते हुए दस हजार जवानों की विशाल सेना लेकर गुरूदेव पर आक्रमण कर दिया उधर गुरूदेव पहले से ही तैयारियों में जुटे हुए थे। उन्होंने भी संदेश भेजकर आसपास के सभी अनुयायियों को संकट का सामना करने के लिए आमंत्रित कर लिया था।
जब दोनों सेनाएं आमने सामने हुई तो घमासान कत युद्ध हुआ। शाही सेना को कड़ा मुकाबला झेलना पड़ गया। उनका अनुमान कि विशाल शाही सेना देखकर शत्र भाग खड़ा होगा, झूठा साबित हो गया। पहले दिन के युद्ध में ही शाही सेना के कई वरिष्ठ अधिकारी मुहम्मद खान, बैरक खान, अली बख्श खेत रहे। रात्रिा होने तक शाही सेना की मर टूट गई और राज्यपाल अब्दुल्ला खान के स्वप्न चकनाचूर हो गये, उसने अपना सारा क्रोष्ट | करमचन्द व रतनचन्द पर निकाला। उसे एक तरफ तो इन दोनों की बात में दम लगता था किन्तु युद्ध का परिणाम उसके विरूद्ध जा रहा था, वह आश्चर्य में था कि उस की विशाल प्रशिक्षित सेना अपने से चौथाई देहातियों से क्यों पराजित हुई जा रही है ?
दूसरी तरफ गुरूदेव के समर्पित सिक्ख केवल श्रद्धावश अपना तन मन व धन गुरू पर न्यौछावर करने पर तुले हुए थे। वे अपनी जान को हथेली पर रखकर गुरू की प्रशंसा प्राप्त करने के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए तत्पर थे। ऐसे में केवल कुछ चाँदी के सिक्कों की प्राप्ति के बदले लड़ने वाले सौनिक उनका सामना करने में अपने को असमर्थ अनुभव कर रहे थे। बस यही कारण था कि शाही सेना के बार बार के आक्रमण बुरी तरह विफल हो रहे थे और उनकी भारी संख्या में सेना खेत रह गई थी। राज्यपाल अब्दुल्ला खान एक विचार बनाने लगा कि बची हुई सेना लेकर भाग लिया जाये किन्तु उसे गैरत (स्वाभिमानद्ध ने रोके रखा। वह सोचने लगा जो होगा देखा जाएगा कल का युद्ध अवश्य ही लड़ा जाए। वैसे युद्ध एक जुआ ही तो है। क्या पता कल हमारा पलड़ा भारी हो जाये।
सूर्य उदय होते ही पुनः युद्ध प्रारम्भ हो गया। दूसरे दिन का आक्रमण पहले दिन की अपेक्षा अधिक घातक था। चारों ओर योद्धा एक दूसरे से खूनी होली खेल रहे थे। कुछ परिणाम न निकलता देख अब्दुल्ला खान पश्चाताप करने लगा कि मैं भी बिना कारण किन मूर्षों के बहकावे में आ गया और अल्लाह के बंदो पर हमला कर बैठा। परन्तु अब पीछे हटना कायरता थी, मजबूरी में उसने अपने बेटे नबी बख्श को रणक्षेत्रा में भेज दिया) क्योंकि सभी वरिष्ठ अधिकारी मृत्यु शैया पर सो चुके थे।
नबीबख्श ने रणक्षेत्रा को खूब गर्म किया किन्तुबह जल्दी ही गुरूदेव के परम सेवक परसराम के हाथों मारा गया। इस पर राज्यपाल अब्दुल्ला खान का दूसरा लड़का जिसका नाम करीम बख्श था, ने सेना का नेतृत्त्व किया और युद्ध स्थल में पहुंचा। वह योद्धा था इसने युद्ध कौशल दिखाया किन्तु भाई विधि चन्द के हाथों खेत रहा। अब अब्दुल्ला खान हारे हुए जुआरी की तरह अन्दर से बुरी तरह टूट चुका था किन्तु अन्तिम दांव के चक्कर में वह स्वयँ बची हुई सेना लेकर घायल शेर की तरह गुरूदेव के समक्ष आ दमका, उसके साथ रतनचन्द और करमचन्द साथ थे। अब तक आधी शाही सेना मारी जा चुकी थी और बाकियों में अधिकाँश घायल थे। एक बार ऐसा महसूस होने लगा कि गुरूदेव इस नये हमले में घिर गये हैं किन्तु जल्दी ही स्थिति बदल गई। गुरूदेव ने उनके कई सैनिकों को तीरों से भेद दिया। उतने में गुरूदेव की सहायक सेना ठीक समय पर पहुंच गई और देखते ही देखते युद्ध का पासा पलट गया। गुरूदेव ने क्रमशः तीनों को अपनी कृपाण की भेंट चढ़ा दिया। करमचन्द और रतनचन्द के मरने पर केवल अन्तिम युद्ध अब्दुल्ला खान और गुरूदेव के बीच हुआ जो देखते ही बनता था। अब्दुल्ला खान ने कई घातक असफल वार गुरूदेव पर किये किन्तु गुरूदेव पैंतरा बदल लेते थे। जब गुरूदेव ने खण्डे का वार अब्दुल्ला खान पर किया तो वह दो भागों में विभाजित होकर भूमि में गिर गया। उसकी मृत्यु पर समस्त शाही सेना भाग खड़ी हुई।
शाही सेना भागते समय अपने घायल सैनिक तथा शव पीछे छोड़ गई। घयलों की सेवा सम्भाल गुरूदेव ने अपने अनुयायियों को विशेष आदेश | देकर की और कहा किसी भी घायल के साथ भेदभाव न किया जाये। मृत सैनिकों के शवों को सैनिक सम्मान के साथ दफना दिया गया।