श्री गुरु हरगोबिन्द जी - Shri Guru Hargobind Sahib Ji

श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी की जीवनी (Shri Guru Hargobind Ji)

श्री गुरू हरगोविन्द जी का प्रकाश श्री गुरू अर्जुन देव जी के गृह माता गंगा जी के उदर से संवत १६५२ की २१ आषाढ़ शुक्ल पक्ष में तदानुसार १४ जून सन् १५६५ ईस्वी को जिला अमृतसर के बढ़ाली गांव में हुआ।

बाल्यकाल से ही श्री हरिगोविन्द जी बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। श्री गुरू अर्जुन देव जी के यहां लम्बी अवधि के पश्चात इकलौते पुत्र के रूप में होने के कारण उन्हें माता पिताका अथाह स्नेह मिला और इस स्नेह में मिले उच्च कोटि के संस्कार तथा भक्तिभाव से पूर्ण सात्विक वातावरण।

आप के लालन-पालन में बाबा बुड्डा जी तथा भाई गुरदास जी जैसी महान विभूतियों का विशेष योगदान रहा। जिससे आयु के बढ़ने के साथ उन्हें स्वतः ही विवेकशीलता, माधुर्य प्रभु भक्ति एवं सहिष्णुता के सद्गुण भी प्राप्त होते चले गए।

जब आप सात वर्ष के हुए तो आपको साक्षर करने के लिए बाबा बुड्डा जी तथा भाई गुरदास जी की नियुक्ति की गई। इसके साथ ही आपको शस्त्र विद्या सिखाने के लिए भाई जेठा जी की नियुक्ति की गई। आप घुड़सवार बन गए। नेज़ाबाजी, बन्दूक आदि शस्त्रों को चलाने में भी आपने शीघ्र ही प्रवीणता प्राप्त कर ली।

आप का कद बुलन्द, अति सुन्दर, चौड़ी छाती, हाथी की सूंड जैसे लम्बे बाजू माथा स्कन्ध भाग तथा पैरों की महराब ऊंचे, दांत चमकीले, रंग गदमी, नेत्र हिरणों जैसे, बलवान सुंगठित शरीर आत्मबल एवं मानसिक बल में प्रवीण इत्यादि गुण प्रकृति से उपहार स्वरूप प्राप्त हुए थे।

अरजनु काइआ पलटि कै मूरति हरि गोबिन्द सवारी ।।

शान्ति के पुंज, वाणी के बोहिश पंचम पातशाह गुरू अर्जुन देव जी को ३० मई, सन १६०६ ईस्वी को लाहौर नगर में शेख अहमद सरहंदी व शेख फरीद बुखारी द्वारा षड्यन्त्र रचकर शहीद कर दिया गया। गुरूपिता श्री गुरू अर्जुन देव जी ने लाहौर जाने से पूर्व बेटे हरिगोविन्द को आदेश दिया – बच्चा अब शस्त्र धारण करने हैं और तब तक अडिग रहना है जब तक ज़ालिम जुल्म करना न छोड़ दे।

श्री गुरू अर्जुन देव जी की शहीदी के पश्चात् गुरू पिता के आदेश अनुसार गुरू गद्दी का उत्तरदायित्व श्री हरिगोविन्द जी ने संभाल लिया। इस बात को भाई गुरदास जीने स्पष्ट किया कि केवल काइआ ही बदली है क्योंकि ज्योति वही रही – गुरू अर्जुन देव ही गुरू हरिगोविन्द रूप हो गए हैं। गुरू घर में गुरमति सिद्धान्त अनुसार सदैव ‘गुर शब्द’ को ही प्राथमिकता प्राप्त रही है काया अथवा शरीर को नहीं । शरीर की पूजा वर्जित है केवल पुजा दिव्य ज्योति की ही की जाती है। गुरवाणी का पावन आदेश है –

जोति ओहा, जुगति साइ, सहि काइआ फेरि पलटीऐ ॥

भाई गुरदास जी ने इसी सिद्धान्त को अपनी रचनाओं द्वारा पुनः स्पष्ट किया –

पंजि पिआले पंजि पीर छटमु पीरु बैठा गुरू भारी। अरजनु काइआ पलटि कै मूरति हरि गोबिन्द सवारी। दल भंजन गुर सूरमा वह जोधा बहू परोपकारी ।।

श्री गुरू हरिगोविन्द जीने अपने पिता जी के आदेश का अनुसरण किया और समय की नजाकत को पहचानते हुए ऐसी शक्तिशाली सेना के सृजन का निश्चय किया जो प्रत्येक प्रकार की चुनौतियों का सामना करने का साहस रखे। उन्होंने लक्ष्य निर्धारित किया कि हमारा सैनिक बल अनाथों, गरीबों, असहाय की रक्षा के लिए वचनबद्ध होगा और इसके विपरीत अत्याचारियों, दुष्टों का दमन करेगा।

पिता श्री गुरू अर्जुन देव जी की शहीदी के पश्चात् जब आपको बाबा बुड्डा जी विधिवत् तिलक लगाकर गुरिआई गद्दी सौंप चुके तो आपने उनसे अनुरोध किया और कहा – बाबा जी ! जैसा कि आप जानते ही हैं, पिता जी का आशय था कि अब समय आ गया है भक्ति के साथ शक्ति का सुमेल होना चाहिए। अतः आप मुझे शस्त्र धारण करवायें। इस पर बाबा बुड्डा जी ने उन्हें क्रमशः कृपाने धारण करवाई पहली दांयी तरफ भक्ति की और दूसरी बांयी तरफ शक्ति की। इसके साथ उन्होंने आशीष दी कि आप द्वारा गुरू नानक देव के दर घर में मीरी व पीरी का सदैव सुमेल बना रहेगा। यह वचन सुनकर सारी संगत जय-जयकार कर उठी।।

मीरी व पीरी की दो कृपाणें धारण करने के पश्चात् श्री गुरू हरिगोविन्द जी ने सभी प्रकार की फकीरी परम्पराएं त्याग दी और सैनिक वेशभूषा धारण करके एक विशेष तख्त पर विराजमान होकर दरबार सजाना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने अपने सभी दूर-दराज के अनुयायियों को विशेष हुक्मनामे भेजे कि वह आगामी समय में दशमंश भेंट करते समय विशेष ध्यान रखें जब भी कोई सिख दर्शनों को आये तो वह अच्छे अच्छे अस्त्रा शस्त्र अथवा घोड़े लाये, भाव किसी न किसी प्रकार का सेना से सम्बन्धित रण सामग्री ही लाये, जो आदेश अनुसार आचरण करेगा उस पर गुरूदेव की अति कृपादृष्टि होगी।

श्री गुरु अंगद देव जी ने सिक्खों में मल्ल युद्ध की परम्परा के लिए अखाड़े पहले से ही स्थापित कर दिये थे। अब श्री गुरू हरि गोविन्द साहब | जी ने आदेश दिया कि उन अखाड़ों में मल्ल विद्या के साथ साथ अस्त्रा व शस्त्र विद्या भी सिखाई जाएगी।

उन दिनों प्राय लोग घोड़ों पर ही यात्राा किया करते थे। श्रद्धालुओं ने अस्त्र-शस्त्रों के साथ साथ गुरूदेव को घोड़े भी भेंट करने आरम्भ कर दिये। इस प्रकार कुछ ही समय में गुरूदेव के पास विशाल सेना तैयार हो गई।

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