श्री गुरु हरगोबिन्द जी - Shri Guru Hargobind Sahib Ji

श्री गुरू हरिगोविन्द जी ग्वालियर के किले में (Shri Guru Hargobind Ji)

श्री गुरू हरिगोविन्द जी का ग्वालियर के किलेदार ने भव्य स्वागत किया क्योंकि उसे सम्राट की ओर से आदेश मिला कि गुरूदेव जी मेरे लिए वहां तपस्या करेंगे। अतः इन्हें किसी प्रकार की भी असुविधा नहीं होनी चाहिए और प्रत्येक प्रकार का खर्च सरकारी खजाने से किया जाये। उस समय गुरूदेव के साथ उनके पांच निकटवर्ती शिष्य भी थे।

ग्वालियर के किले में पहले से ही हर राजनीतिक कैदी कारावास भोग रहे थे। इन पर आरोप बगावत का था। यह छोटे छोटे राज्यों के स्वामी अति कष्टमय जीवन जी रहे थे। गुरूदेव के किले में निवास करने से इनके जीवन में क्रान्ति आ गई। सभी कष्ट मंगलमय जीवन में परिवर्तित हो गये । गुरूदेव जी की दिनचर्या इस प्रकार प्रारम्भ होती। आप प्रातः कीर्तन श्रवण करते, यह कीर्तन अलाप आपके शिष्य प्रतिदिन करते । तद्पश्चात आप स्वयं वहां के कैदियों के समक्ष प्रवचन करते और उसके पश्चात्! आप अपने विशेष कक्ष में चिन्तन-मनन में रम जाते। संध्या समय फिर कीर्तन तपश्चात रहिरास का पाठ इत्यादि होता। जो सरकारी खजाना गुरूदेव पर व्यय होना था, गुरूदेव उसे वहां के कैदियों की आवश्यकताओं पर न्योछावर कर देते। आप वहां का भोजन नहीं करते थे। आपके भोजन के लिए आपके सिक्ख नगर में जा कर प्रतिदिन परिश्रम करते, उस से जो आय होती, उसकी वह रसद खरीदते और उस को पका कर गुरूदेव को भोजन करवाते । नित्यप्रति सत्संग श्रवण करने से स्थानीय किलेदार हरिदास आप का परम भक्त बन गया। जब उसे चन्दूशाह का पत्रा मिला तो वह बहुत क्रोधित हुआ। उसने वह पत्रा गुरूदेव के समक्ष रख दिया। गुरूदेव ने वह पत्रा बहुत सावधानी पूर्ण सुरक्षित रख दिया। इस प्रकार ४० दिन व्यतीत होते मालूम ही नहीं हुए। गुरुदेव भजनबंदगी में लीन थे, किन्तु गुरूदेव के शिष्यों में चिन्ता हुई कि हमें वापिस बुलाने का आदेश कब आयेगा। परन्तु कोई सन्देश नहीं आया। ऐसा मालूम होता था कि जहांगीर ऐश्वर्य में सब कुछ भूल चुका है अथवा उसे भूलने का प्रयास किया जा रहा है।

उन दिनों ग्वालियर का किला बहुत बदनाम किला माना जाता था। यहां से कोई कैदी जीवित बाहर नहीं निकल पाता था। जब यह समाचार अमृतसर माता गंगा जी को मालूम हुआ तो वह बहुत चिंतातुर हुई। उन्होंने बाबा बुड्ढा जी को सांई मियां मीर जी के पास भेजा कि आप इस विषय में हस्तक्षेप करें और बादशाह पर दबाव डाले कि वह श्री गुरू हरिगोविन्द जी को तुरन्त ग्वालियर के किले से वापिस बुलाए।

सांई मियां मीर जी दिल्ली जाने का प्रस्ताव मान गये। बाबा बुड्ढा जी व सांई मियां मीर जी के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मण्डल दिल्ली बादशाह के पास पहुंचा। श्री गुरू हरिगोविन्द जी को तब तक लगभग ६५-७० दिन ग्वालियर के किले में हो चुके थे। इस बीच सम्राट को रात में भयभीत करने वाले स्वप्न आने लग गएँ, उसे ऐसा जान पड़ता कि कोई विकराल विराट स्वरूप शक्ति उसके पेट पर बैठी उसे धमका रही है कि तू याद कर तुमने क्या भूल की है, तुमने किसी महान व्यक्तित्व के स्वामी को स्वार्थ सिद्धि के लिए बंदन में डाला हुआ है। जब सम्राट तोबा तोबा करता तो वह शक्तियां अदृश्य हो जातीं। किन्तु सम्राट अनुभव करता, यह स्वप्न नहीं प्रत्यक्ष है। वह अपने दरबारियों से किसी बात की चर्चा करता तो चन्दूशाह के पढ़ाए हुए मंत्री उसे बहला फुसला कर कह देते, ऐसा अक्सर हो जाता है, कभी कभी डरावने स्वप्न आ ही जाते हैं। किन्तु बादशाह को फिर कुछ दिनों पश्चात् वैसा ही भयभीत करने वाले दृश्य अर्धरात्रि में दिखाई देने लगे। जैसे ही अमृतसर से आये प्रतिनिधि मण्डल की भेंट चार्ता बादशाह से हुई, उसने सांई मियां मीर जी से अपने स्वप्नों होंने बादशाह को बताया कि तुमने हरिगोविन्द जी को बंध्न में डाला है और उन्हें वापिस बुलाना भूल गये हो। बस फिर क्या था, बादशाह ने तुरन्त आदेश दिया कि श्री गुरू हरिगोविन्द जी को आदर सहित दिल्ली वापिस लाओ। किन्तु गुरूदेव जी ने किले से बाहर आने से साफ इन्कार कर दिया, उनका कहना था कि यहां से सभी राजनैतिक कैदियों को भी हमारे साथ स्वतन्त्रा किया जाये। बादशाह के लिए बहुत गम्भीर समस्या थी, उसने इस का समाधान निकालते हुए आदेश दिया जो कैदी गुरूदेव का दामन थाम कर बाहर आ सकते हैं, उन्हीं को अनुमति होगी, बाकी वहां रहेंगे। गुरूदेव जी ने इस समस्या का भी समाधान किया, उन्होंने तुरन्त ५२ कलियों वाला एक विशाल चोला बनवाया और उसे पहन कर किले से बाहर निकलते समय एक एक कली समस्त कैदियों को थमा दी, किन्तु चोला तो भूल से ५० कली का ही बन पाया था। जिस कारण दो कैदी पीछे छूट गये, वे गुहार लगाने लगे, हमारा क्या होगा, उनकी याचना सुनकर गुरूदेव जी ने अपने गले में पड़े हुए पत्न्लू के दोनों छोरों को बाकी बचे दोनों कैदियों को थमा दिया। इस प्रकार सम्राट की शर्त पूरी करके सभी कैदियों को सदैव के लिए स्वतन्त्रता दिलवा दी। जब सभी कैदियों के बन्धन समाप्त हो गये तो उन्होंने गुरूदेव जी को ‘बन्दी छोड़’ के नाम से सम्बोधन किया। यह उनकी दी हुई उपाधि गुरूदेव के साथ उपनाम के रूप में स्थापित हो गई।

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