बादशाह से विदा लेकर लोटने का कार्यक्रम गुरूदेव ने बताया इस पर बादशाह ने गुरूदेव के सवमक्ष प्रस्ताव रखा मैं काशमीर पर्यटन के लिए जा रहा हूँ कृपया आप कुछ दिन और रूके इकट्ठे ही चले लगे आप का रास्ते में साथ, समय अच्छा कटता रहेगा। गुरूदेव ने कहा ठीक है। इस प्रकार आध्यात्मिक विचारों को श्रवण करने का आनंद उठाते हुए बादशाह मंजिले तैह करते हुए व्यासा नदी पार करके गोईवाल नगर पहुंचे। यह स्थल पूर्व गुरूजनों का था इस लिए गुरूदेव वहां ठहर गये और बादशाह से कहा अब हम यहां से रास्ता बदल कर अपने नगर अमृतसर जाएंगे। आपने तो काशमीर जाना है अतः आप लाहौर को जाएंगे। किन्तु बादशाह ने कहा – आप से बिछुड़ने का मन नहीं हो रहा और मेरा मन आप द्वारा निर्मित नगर आश्र वहां के सभी भवन इतयादि देखने का विचार है। सम्राट की इच्छा सुनकर गुरूदेव से उसे अपने यहां आने का न्योता दिया। बादशाह के स्वागत के लिए गुरूदेव जी का एक दिन पहले गोईवाल से अमृतसर के लिए प्रस्थान कर गया जब गुरूदेव अमृतसर पहुंचे तो उस दिन दिवाली का पर्व था। गुरूदेव जी के अमृतसर पधारने पर समसत नगर में दीप माला की गई और मिठाईयां बांटी गई। दो दिन के अन्तर मैं बादशाह भी अपने काफले सहित पहुंच गया गुरूदेव ने उस का भव्य स्वागत किया सम्राट स्थानीय भवन व निर्माण कला देखकर आति प्रसन्न हुए उसने परम्परा अनुसार श्री दरबार साहब की परिक्रमा की और हिर मन्दिर में बैठकर गुरू घर के कीर्तनीयों से गुरूवाणी श्रवण की इस आवधि में उस का मन स्थिर अथवा शांत हो गया वह एक अगम्य बातावरण का अनुभव करने लगा जहां ईर्ष्या, तृष्णा, द्वैतवाद था ही नहीं, वह्म थी तो केवल आध्यात्मिक उर्जत रहस्यमय वायुमण्डल, जिस में प्रातृत्व के अतिरिक्त कुछ न था। सुखद अनुभूतियों का आनंद प्रापत कर सम्राट ने इच्छा प्रकट की कि उसे माता जी से मिलवाया जाये।
माता गंगा जी से भेट होने पर सम्राट ने पांच सौ मोहरे अर्पित की और नतमस्तक हो प्रणाम किया साथ में क्षमा याचना की कि उनके पति की हत्या में उसका कोई हाथ नहीं। उसने तो केवल दुष्टों व ईष्र्यालुयों के चुंगल में फंसकर गुरवाणी की जांच के आदेश दिये थे। इस पर माता जी ने काह – इस बात का निर्णय तो उस सच्ची दरगाह में होगा और वह मोहरे उइवाकर गरीबों में वितरण करवा दी जहांगीर अमृतसर से लाहौर चल गया।
इस बीच सिक्खों ने चन्दू शाह को गुरूदेव की दृष्टि से बचाकर उसे लाहौर भेज दिया उनका विचार था कि गुरूदेव दयालु, कृपालु स्वभाव के है कहीं इसे क्षमा न कर दे। दुसरा वे चाहते थे कि चन्दू शाह के चेहरे पर कालिक पौत कर उसे वहीं घुमाया जाये जहां इस ने कुकर्म किया था। चन्दू आने किये पर पश्चाताप कर रहा था जिस कारण वह अन्दर से टूट गया। अपमान और ग्लानी के कारण अधमरा सा हो गया एक दिन उसे सिख, कैदी के रूप में लाहौर के बाजार में घुमा रहे थे कि एक भड़पूंजे ने उसके सिर पर डंडा दे मारा जिस से उसकी मृत्यु हो गई।
चन्दू शाह तो मर गया परन्तु वह विरासत में नफरत तथा ईर्ष्या छोड़ गया। चन्दूशाह का पुत्रा कर्मचन्द भी बाप की तरह गुरूदेव से शत्रुता की भावना रखता था। वह श्री गुरू हरिगोविन्द जी के हाथों दूसरे युद्ध में रणक्षेत्रा में मारा गया।