गुरु जी एक पहाड़ी की ओट में बैठ गए। वहां उन्होंने मर्दाने को रवाब बजाने के लिए कहा तथा स्वयं ईश्वरीय शबद का गायन करने लगे। गांव के लोगों ने जब यह आलौकिक गायन सना तो वह गुरु जी के पास आकर एकत्र हो गए तथा इस मनमोहक कीर्तन को सुनकर बंध-से गए। गुरु जी ने फिर उनको नेक कमाई तथा एक प्रभु की अराधना करने की शिक्षा दी।
तत्पश्चात् वे सभी प्रतिदिन गुरु जी के सत्संग में आने लगे। जब वली कंधारी के पास लोग जाने से हट गए तो वह बहुत क्रोधित हुआ। वह गांव के लोगों को सबक सिखाना चाहता था, इसलिए उसने एक दिन तालाब का पानी नीचे गिरने से रोक दिया। पानी की कमी के कारण गांव के लोग घबरा गए, कुछ ही देर बाद मर्दाने को प्यास लगी। गुरु जी ने उसे समझाया कि उधर पहाड़ पर एक चश्मा है, जिस में काफी पानी है, उस पानी का मालिक वली कंधारी बना बैठा है लेकिन वह एक फकीर है, यदि तुम उससे विनय करोगे तो वह जरूर तुम्हें पीने के लिए पानी दे देगा। मर्दाना पहाड़ पर चढ़ता हुआ वली कंधारी के पास पहुंचा और पीने के लिए पानी मांगा लेकिन वली कंधारी कड़क कर बोला, “जिस फकीर के तुम शिष्य बने हो क्या वह तुम्हें पीने के लिए पानी भी नहीं दे सकता?” मर्दाना प्यासा ही गुरु जी के पास वापस पहुंच गया। गुरु नानक देव जी ने उसे फिर निवेदन करने के लिए भेजा, लेकिन मर्दाना दूसरी बार भी निराश ही लौटा। फिर गुरु जी ने संगत में बैठे कुछ व्यक्तियों को एक विशेष पत्थर की ओर इशारा करते हुए आदेश दिया कि वह उस पत्थर को उठाएं। जब उन लोगों ने उस पत्थर को उठाया तो वहां से पानी का एक विशाल चश्मा फूट पड़ा।
वली कंधारी का वह सरोवर बिल्कुल सूख गया। वह क्रोध से लाल-पीला हो गया तथा उसने अपनी करामाती शक्ति से एक बड़ा पत्थर गुरु जी की ओर फैंका ताकि वे पत्थर के नीचे दब कर मर जाएं लेकिन जब वह पत्थर लुढ़कता हुआ गुरु जी की ओर आया तो गुरु जी ने अपना हाथ उस पत्थर के आगे कर दिया और वह पत्थर वहीं रुक गया। गुरु जी का पंजा उस पत्थर में धंस गया। गुरु जी के पंजे का निशान आज भी उस पत्थर पर स्थिर है। जब गुरु जी के इस विचित्र कौतुक का पता गांव वालों को लगा तो वे आकर गुरु जी के चरणों में गिर पड़े।
गुरु जी ने केवल उनको पीने के लिए ही पानी नहीं दिया था बल्कि प्रभु की कृपा से उनकी फसलें भी उस पानी से आनन्दित होने लगीं।
वली कंधारी का सरोवर बिल्कुल सूख गया, क्योंकि जो पानी वाली कंधारी के सरोवर तक जाता था वह सीधा ही नीचे की ओर बहने लगा। जब वली कंधारी को इन सभी करामातों की अनुभूति हुई तब वह बड़ी नम्रता व प्यार से गुरु जी के चरणों में गिर पड़ा तथा अपने किए पर क्षमा याचना करने लगा। गुरु जी ने उसको समझाया कि हमें मांग कर खाने की आदत छोड़ देनी चाहिए। एक अल्लाह के नाम का सुमिरण करना चाहिए और परमात्मा के प्राणियों को प्यार करना चाहिए। तदोपरान्त वली कंधारी गुरु जी का सिक्ख बन गया। उस स्थान पर गुरुद्वारा पंजा साहिब स्थित है।