श्री गुरु नानक देव जी को उसी प्रकार चुपचाप ध्यान में निमग्न देख कर सारे बेदी परिवार में चिंता लगी रहती थी। अनेक लोग कहते थे कि नानक का दिमाग ठीक नहीं रहा। माता तृप्ता जी एक दिन कहने लगे, हे पुत्र! तू सारा दिन लेटा ही रहता है। इस का क्या कारण है? अब तुम जवान हो, कोई काम करो। काम करने वाले की शोभा होती है। यह पागलपन छोड़ दो। संसार कहता है कि पटवारी का पुत्र नीम पागल है और कमाने अथवा काम करने के योग्य नहीं है। शरीकों की इन बातों से हम दुखी होते हैं।
माता के समझाने का कोई लाभ न हुआ। नानक देव जी उसी प्रकार ध्यान अवस्था में ही रहते थे। नानक देव जी की माता जी ने पटवारी जी से कहा कि लड़का न तो बोलता है और न अन्न ही खाता है। किसी लम्बे ध्यान में मस्त पड़ा रहता है। तब पिता जी ने समझाना चाहा, हे पुत्र! उठो स्नान करो। कुछ खाना खाओ और प्रसन्नचित्त रहा करो जिस से मन लगे। यदि किसी से बात करना पसंद नहीं तो कम से कम उठो और चलो-फिरो, खाओ-पहनो तथा रोज़गार में लग जाओ। अपने मन की व्यथा हमें बताओ। छत्री के पुत्र को व्यापार अवश्य करना चाहिए। इससे यश और अर्थ की वृद्धि होती है। बाहर हमारी खेती पक रही है, यदि तुम इसकी रक्षा करो तो नष्ट होने से बच सकती है। लोग कहते हैं, ‘खेती खसमां सेती। उत्तर में गुरु नानक देव जी कहते हैं, हे पिता जी! मैंने तो अब एक एकांत खेती तैयार की है। उसमें हल चलाया गया है, उसमें बहुत फल होगा। अब तो उसी अपनी खेती की रक्षा करनी है। कालू जी को यह उत्तर बेतुका प्रतीत हुआ। कहने लगे, देखो लोगो! यह लड़का किस प्रकार की बातें करता है? पिता ने कहा-हे पुत्र! यदि तू अपनी पृथक खेती करना चाहेगा तो हमें यह भी स्वीकार है, कर लेना! गुरु जी ने कहा, मैंने तो अपनी खेती में बीज लगा दिया है, उसमें बहुत फल आने ही वाला है। पिता जी ने कहा, हम ने तो तेरी अलग खेती देखी नहीं, कैसी है? गुरु जी कहने लगे, पिता जी! उसे आप स्वयं देख लोगे और सुन लोगे। यह कह कर आप ने एक शबद उच्चारण किया
सोरठि महला १ घरु ॥ १ ॥ मनु हाली किरसाणी करणी सरमु पाणी तनु खेतु ॥
नामु बीजु संतोखु सुहागा रखु गरीबी वेसु ॥ भाउ करम करि जंमसी से घर भागठ देखु ॥ १ ॥ बाबा माइआ साथि न होइ॥
इनि माइआ जगु मोहिआ विरला बूझै कोइ ॥ रहाउ॥ यह सुन कर कालू जी ने कहा कि इस का अर्थ बताओ। तब गुरु जी ने । कहा कि अपने मन को सत्संग में लगाना यही हल चलाना है और शरीर रूपी पृथ्वी में सुकर्मों का बीज रोपण यही सुन्दर वाही है। साधुओं के दर्शनों का उस में जल देना है। ईश्वर नाम का बीज डाला है। सन्तोष का सुहागा है। बुरे कर्मों से भय खाना यह खेती का जंमना है। जिस गृह में इस खेती के व्यापार से शुभ प्रालब्ध रूपी जो धन आता है वही सु धन है और जो मिथ्या माया की रचना है सो द्रोह है। यह संसारी माया ईश्वर नाम से विमुख करती है तथा परलोक में साथ नहीं जाती।
कालू जी ने फिर कहा, बेटा! यदि तु खेती नहीं करना चाहता तो दुकान ही कर ले। हम लोगों की खेती तो दुकान है। तब गुंरु जी ने दूसरी पउड़ी उच्चारण की
हाणु हटु करि आरजा सचु नामु करि वधु ॥ सुरति सोच करि भांडसाल तिसु विचि तिस नो रखु ॥
वणजारिआ सिउ वणजु करि लै लाहा मन हसु ॥ २ ॥ अर्थ- हे पिता जी! मैंने तो दुकान भी की हुई है, आप तो जानते नहीं। सुनिये-मनुष्य देह की जो आयु है वही हमारी दुकान है। सुरत की वृत्तियों को पाप कर्म से हटा कर पवित्र किया जाता है, यही हमारी भांडसाल है। परमेश्वर के सत्य नाम का जो सदैव स्मरण है वही उन बर्तनों में चीज़ है और संत समागम ही इस व्यापार में लाभ है और यही कमाई है।
नानक को जब कालू जी ने कहा, हे नानक! यदि तूने दुकान नहीं करनी और तेरा दिल यात्रा करने को है तो मैं तुझे घोड़ों का सौदागर बनाने को तैयार हूं जिस से तुम अनेक देशों की यात्रा कर सकते हो। गुरु जी ने कहा, मैं तो पहले ही सौदागर हूं। यह कह कर उन्होंने तीसरी पउड़ी उच्चारण की
सुणि सासत सउदागरी सतु घोड़े लै चलु ॥ खरचु बनु चंगिआईआ मतु मन जाणहि कलु ॥ निरंकार कै देसि जाहि ता सुखि लहहि महलु ॥ ३ ॥ अथ- हे पिता जी! समस्त शास्त्रों का श्रवण तथा उन से प्रेम-श्रद्धा यह हमारी सौदागरी है। सत्य भाषण यह घोड़े हैं, बुरे कर्मों का त्याग तथा सुकर्मों का ग्रहण यह मार्ग व्यय है। मन में यह निश्चय कि परमात्मा सर्व व्यापक है उसी की कृपा से निरगुण ब्रह्मा के देश में पहुंच गये हैं। उसके स्थान में पहुंचना ही व्यापार में लाभ है। जिसमें परमानंद है। तब कालू जी ने कहा, बेटा! तू हमारे काम का नहीं रहा। अब घर में बैठो। तेरी कमाई तो हमने देख ली है। शरीक कहते हैं कि एक ही लाल पैदा हुआ है। यदि तू साधू होकर कहीं चला गया तो लोग कहेंगे निकम्मा था, फकीर हो गया है। इस में निंदा होगी। कुछ नहीं करना तो किसी की नौकरी कर ले। यह सुन कर गुरु जी ने चतुर्थ पउड़ी उच्चारण की
लाइ चितु करि चाकरी मंनि नामु करि कंमु॥ बनु बदीआ करि धावणी ता को आखै धेनु ॥
नानक वेखै नदरि करि चड़े चवगण वंनु ॥ ४ ॥ अर्थ- हे पिता जी! हमने नौकरी कर ली है। हमारा मन परमात्मा में लग गया है। यही चाकरी है। हमारा काम उस परमात्मा के नाम पर श्रद्धा करना है। बुरे कर्मों से मन रोकना यह हमारी दैनिक क्रिया है। प्रभु कृपा करे तो संसार में यश होता है। चार गुणा रंग चढ़ता है जिन पर प्रभु अथवा गुरु की कृपा है।
उनके हृदय रूपी आकाश में ज्ञान रूपी चन्द्रमा प्रकाशवान होता है। और वे निरंकार के देश में पहुंच जाते हैं। ये वाक्य सुन कर पिता कालू जी की संतुष्टि हुई और वे मौन हो गए। गुरु नानक जी की वही अवस्था रही।