पुत्री कउलु न पालिओ करि पीरहु कंन्ह मुरटीऐ ॥ दिलि खोटै आकी फिरन्हि बंन्हि भारु उचाइन्हि छटीऐ ॥
बाबा श्री चंद जी गुरू अंगद देव जी के खिलाफ प्रचार करते रहे और जब भी कोई बात करते तो उन को साड़े घर दा टहिलू कह कर संबोधित करते। गुरू अमरदास जी को तो वह मिलने भी न आए। गुरू रामदास जी के समय तक, गुरू दरबार और सिखी की शोभा इतनी फैल गई थी कि बाबा श्री चंद जी भी प्रभावित होने से न रह सके। वे बाठ (जिला गरदास पुर में, पठान कोट से पहला स्टेशन शरना है। शरने से पहाड़ वाली तरफ पांच सौ मिले की दूरी पर गांव बारठ है जो रावी नदी के किनारे पर है) से चल कर श्री अमृतसर साहिब गुरू जी के दर्शनार्थ पहुंचे। साथ ही उनके अन्य साधु भी थे। सतगुरू जी ने सब को बहुत आदर सम्मान दिया। बाबा जी की उम्र 70 साल से भी अधिक हो चुकी थी। काफी वृद्ध हो चुके थे। सतगुरू जी ने अपने हाथों उन की मुट्ठी चापी व सेवा की। गुरू रामदास जी की दाढ़ी बहुत लंबी थी। बाबा श्री चंद जी देख कर मुस्कुरा पड़े और कहने लगे : इतना सुंदर दाहड़ा काहे को बढ़ाया है? सतगुरू जी ने उत्तर दिया कि आप जैसे महापुरुषों के पैर झाड़ने के लिए। इतना सुनना ही था कि बाबा श्री चंद जी बोले कि गुरू अंगद देव जी, गुरगद्दी सेवा के बल पर ले गए और आप नम्रता व प्रेम की मूर्ति होने के कारण इस योग्य हुए। आपकी महिमा पहले भी सुनी थी, अब तो प्रत्यक्ष देख ली है।
गुरू समदास जी ने व्यवहारिक तौर पर इस बात की शिक्षा दी कि जब कोई पद मिल जाय तो गुरसिख ने उसका अहंकार नहीं करना बल्कि हृदय में गरीबी धारण करके सेवक बाला जीवन व्यतीत करना है। गुरगद्दी की महान कृपा होने के पश्चात (हजारों लाखों तन, मन, धन वारने वाले गुरसिखों के गुरू बनने के पश्चात) भी सतगुरू जी वैसे ही नम्रता, प्रेम व सेवा का जीवन व्यतीत करते रहे थे। जैसे आप छोटे होते चुंगणियां बेचते समय और गुरू अंगद देव जी व गुरू अमरदास जी के दरबार में निष्काम सेवा किया करते थे। आज के सिख धार्मिक अग्रणी और सामाजिक व राजनीतिक लीडर, यदि कहीं सतगुरू के डाले हुए पदचिन्हों पर चल सकें तो कौम में से तरह-तरह के मतभेद दूर हो जाएं और सारा सिख भाईचारा एकता के मजबूत सूत्र में बंध जाए।