बाउली को बनाने का एक कारण जाति अभिमानी ब्राहमणों, गोइंदवाल के तपीशर गोइदे के लड़कों की गुरू घर व गुरमत से विरोध भी था। इन्होंने खोजे लड़कों को उकसा कर सार्वजनिक कुएं से पानी भरने गए सिखों के घड़े तोड़ने की छेड़वानी शुरू करा दी। इस से कलह क्लेश और झगड़े बढ़ने का खतरा पैदा हो गया। अत: सिख संगत के लिए अलग से बाउली बनवाई गई। बाउली का निर्माण (गुरू) रामदास जी की निगरानी में हुआ। (गुरू) रामदास जी केवल निगरानी ही नहीं करते थे, बल्कि अपने हाथों श्रमदानं भी करते थे। खुदाई का काम और टोकरियों से मिटटी बाहर निकलने का काम आपने बहुत चाव से किया। आप चाहे गुरु अमरदास जी के जमाई थे, पर सेवा करते हुए आपने इस रिश्ते का कोई ख्याल नहीं किया। उन्हीं दिनों में आप की जात बिरादरी के कुछ लोग लाहौर से हरिद्वार जाते हुए गोइंदवाल में आए। वे आपको टोकरी ढोता देख कर बहुत हैरान हुए। कहने लगे, यदि सुसराल में आ कर टोकरी दोनी थी तो यह काम लाहौर में कर लेना था। यहां आ कर हमारा नाक क्यों कटवा रहे हो? फिर गुरू अमरदास जी को कहने लगे, आपने हमारे शरीक भाई से इतने नीच काम करवा कर हमारा अपमान किया है।” गुस्से में ये लोग गुरू जी का आदर सम्मान करना भी भूल गए। शरीकों के ऐसे बोल सुनकर (गुरू) रामदास जी के मन को बहुत ठेस पहुंची। आप सतगुरू जी के चरणों पर गिर पड़े और कहने लगे – “पातशाह इन की बातों का बुरा न मनाना। ये तो अनजाने हैं। यह क्या जाने, सेवा की निधि तो बड़े भाग्य होने पर ही मिलती है। सतगुरू जी! जैसे दूसरों के दोशों को क्षमा कर देते हो, इन को भी क्षमा कर दो।”
इस प्रकार (मृरू) रामदास जी निष्काम हो कर, नम्रता, श्रद्धा और गुरू की पवित्र भय भावना में रह कर सेवा कर रहे थे। सेवा की लगन दिन-प्रति-दिन बढ़ती ही जा रही थी। सेवा में इतने तल्लीन हो जाते थे कि कई कई दिन गुरू दरबार की हाजरी भरने का समय भी न मिलता। एक दिन गुरू अमरदास जी ने, भाई बलू जी को पूछ ही लिया कि क्या बात है, जेठा जी नजर नहीं आते? क्या वे कहीं बाहर गए हुए हैं? तो भाई जी ने उत्तर दिया, नहीं पातशाह जी, जेठा जी यहां पर ही हैं, पर सेवा कर रहे हैं। वे सुबह से शाम तक सेवा में जुटे रहते हैं और गुरू दरबार में हाजरी भरने का समय नहीं नहीं मिलता। आप पहले लंगर तैयार करते हैं फिर संगत को पंक्ति में बिठा कर आदर से लंगर छकाते हैं। ठंझ जल स्वयं भर कर लाते हैं। हरेक की आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। शबद सुनाते हैं। हर आए यात्री के लिए बिछौने का प्रबंध करते हैं और जब संगत आराम कर रही होती है तो पंखे से हवा करते हैं और यहां तक कि थके-मादों की मुट्ठी चापी भी करते हैं। यदि रात को भी कोई पानी मागे या कोई और इच्छा व्यक्त करे, तो उसकी आवश्यकता या इच्छा की पूर्ति करते हैं। यथा :
देग तयार कर देहि अहारा, एकति के बिठाइ इक सारा। सीतल जल को भरि भरि लिदै, बूझ बूझ संगत को पयावै।।१७।।
छुधा पिआसा सभी की हरै, बाछत सिखयोनि दैबो करे।
कर महि गहै बीजना फेर, बायू करति उसुनु बहु हेरि।।
यह सुनकर गुरु अमरदास जी बहुत प्रसन्न हुए और शाबाश दी। आपने कहा कि जिस ने संगत को, गुरू- रूप जान कर सेवा की है, नौ निधियां और अठारह सिद्धियां उसी को ही प्राप्त होती हैं। इससे बड़ी भाग्यशाली और कोई बात नहीं।
जिन संगति की सेवा करी।
हमरे हित इमि प्रीती धरी।
दुलभ पदारथ होइ न कोइ१।
नौ निधि सिधि पाए है सोइ ॥२१॥
सिख मेरे सेवे अनुराग२।
अपर न इस ते को बडिभाग।