आप कहते हैं :
“जो सतगुरु का सिख कहलाता है, वह अमृत बेला में जामता है, स्नान करने के उपरांत नाम के सरोवर में डुबकी लगाता है। गुरु के उपदेश के अनुसार नाम सुमिरन में जुड़ता है जिसकी कृपा से सब पाप व विकार समाप्त हो जाते हैं। फिर साध संगत में जा कर गुरबाणी का पाठ व कीर्तन सुनता है। दिन को धनोपार्जन करते हुए भी प्रभु को याद रखता है। ऐसा सिख ही गुरु को भाता है। सिख केवल स्वयं ही प्रभु का स्तुति गायन नहीं करता, बल्कि दूसरों को भी प्रभु सुमिरन में लगता है और सिखी के मार्ग पर चलाता है। अंत में उनका फुर्मान है। कि मैं ऐसे ग्रसिख की चरण धूड़ि प्राप्त करने को लालायित हूं।”
सतगुरु जी ने अपनी बाणी में गुरमुरव और मनमुख के अंतर को भी व्याख्या सहित उजागर किया है। आप ने अरदास के महत्व पर बल दिया और सिखों को प्रेरित किया कि हर काम का आरंभ करते समये स्वयं प्रभु के सम्मुख अरदास करो। ब्राहमणे, पुरोहितों व अरदासियों की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके लिए हर काम करते समय
कीता लोड़ीऐ कमु सु हरि पहि आखीऐ ॥
पढ़ा जाने लगा और यह विश्वास, किया जाता कि सतगुरु साक्षी हो कर काम को सिरे, चढ़ाते हैं। इस मर्यादा के साथ सिख समाज शगुन-अपशगुन और महूर्तों आदि के भय से पूरी तरह मुक्त हो गया।