एक बार भाई माणिक चंद, भाई पूरो और भाई बिशन दास गुरू दरबार में उपस्थित हुए और विनती की – हे सच्चे पातशाह! कोई ऐसी राह बताओ जिस से हमारा जन्म व मृत्यु का आवागवन मिट जाए और कल्याण हो। सतगुरू जी ने वचन किया कि यह अपनत्व की भावना ही है जो मनुष्य को मोह माया के जाल में फसाए रखती है। मैं और मेरी की भावना के अधीन – किये काम मनुष्य को जन्म व मृत्यु के भंवर में डाले रखते हैं। अतः संब से पहले मैं मेरी की भावना का त्यागं करों व मन में यह दृढ़ कर लो कि सब कुछ उस करतार तथापि परमपिता परमात्मा का ही है। जिस शरीर को अपना कहते हैं, यह भी अपना नहीं। यह तब तक ही कायम है जब तक इस में प्रभु की ज्योति है। बेटे-बेटियां, धन जायदाद से अपनत्व की भावना आत्मिक मृत्यु का कारण बनती है। संसार को किश्ती का मेला ही समझना चाहिए जिस में मुसाफिर मिलते तो हैं पर आपस में कोई गहरा संबंध स्थापित नहीं करते :
तजहि अपनपो तिन ते घनो। जानहि तरी मेल गन मनो।
इस प्रकार सोचने वाले सेवकजनों की प्रभु स्वयं लाज रखता है।
उनका रक्षक व पालक बन जाता है। दुखों-कष्टों की निवृत्ति भी वह स्वयं कर देता है। मेरी- मेरी की भावना को मार कर, गुर संगत व जरूरतमंदों की सेवा करनी है। वह भी केवल स्वयं ही नहीं करनी, बल्कि सारे परिवार से करवानी है। अपने आप को प्रभु के टहिल-सेवक कहलवाना है। सतगुरू जी ने और समझाया कि जो मनुष्य ऐसे विचारों का धारणकर्ता होकर जीवन बसर करता है, उसका रक्षक स्वयं सतगुरू निरंकार बन जाता है। जैसे नौकर घोड़े की सवारी करने के पश्चात घोड़े को मालिक के दरवाजे पर ला कर बांधते हैं, तो घोड़े की सारी चिंता मालिक को होती है। वैसे ही जो स्व को छोड़ कर, प्रभु के हो जाते हैं, उन की चिंता प्रभु स्वयं करता है। चिंता गई तो मानसिक शाति आ जाती है। यथाः .
जथा खसम के दर पर घोरा। चाकर चढि आवहि है छोरा। तबि सभ चिंत रक्सम को होइ। खान पान दे पोस्वहि सोइ ३८ |
(सूरज प्रकाश, रास दूजी, अंश १७)