एक दिन भाई धर्म दास, भाई डूगर दास, भाई दीपा, भाई जेठा, भाई संसारू, भाई बूला व भाई तीरथा आदि सिखों ने विनती की कि हे पातशाह! जैसे भी हो, हमारा उद्धार करो।
गुरू रामदास जी ने इनको उपदेश करते हुए कहा कि पहले तो जाति अभिमान व कुल अभिमान (उच्च खानदान का अहंकार) को त्यागे। हृदय में न धारण करो और निंद्य चुगली से बचो। निर्माण हो कर सेवा करो। कोई गुरसिख घर आए तो अपने हाथों उसकी सेवा करो। यदि उसे किसी चीज की जरूरत हो तो उसे स्वयं पूरा करो। यदि अकेले सहायता करने से उसकी कार्य सिद्धि न होती हो तो दूसरों से धन एकत्र करके भी उसका कार्य सिद्ध कर देना है। अरदास भी करनी है। ऐसा करने से आत्मिक सुख प्राप्त होगा। यथा :
जे सिख कु हुइ काज बडेरा। जिन धन सरहि न जो अस हेरा।। संभ मिल कर उरहु अरदास स्भ ते इक थले कर निज पास।। सिख को कारज दीजै सार। तद्धि प्रापति तुम को सुख सार।।२३।।
(सूरज प्रकाश, रास दूजी, अंश 19) फिर फुर्माया कि जहां सुनो कि कथा-कीर्तन लेना है, वहां जरूर पहुंचो। अपने क्षेत्र में धर्मशाला (गुरद्वारा) बनाने का क्त्न करो। धर्मशाला में ऐसा सेवादार हो जो आने जाने वाले यात्री को आश्रय दें और अन्न-पानी से सेवा करे। अपनी जीविका अर्जन भी करो, सत्य ओके, सत्य का अनार्जन करो। गुरू अंग-संग : रहेगा। सर्वसुखों की प्राप्ति होगी और आत्मिक कल्याण होगा।