गुरू रामदास जी का एक प्रमुख सिख भाई तीरथा था। एक बार वह अपने रिश्तेदारों व संगी-साथियों के साथ गुरू दरबार में आया। गुरू पातशाह को विनती की कि हे पातशाह ! हमारा कलियुगी जीवों का मन नहीं टिकता है। संसार में लोग शांति के लिए भटक रहे हैं, पर मन को चैन नहीं आता। आप कृपा करके मन को बस में करने का व माया से तप रहे मन को, शांत करने का उपाय बताएं। भाई तीर्था जी की यह विनती वास्तव में उनके साथ आई संगत के कल्याण के लिए थी। सतगुरू जी ने कहा कि सच्चे प्रभु के नाम में सुरति जोड़ने से व सत्य को जीवन का आधार बनाने से ही मन वश में आ सकता है। इसलिए हर उस पूजा को छोड़ देना चाहिए, जो मन-वृत्ति को छिन्न-भिन्न करती है। यथाः
मढ़ी मसाण पीर मकान। मानन पूजन इनै न ठानो।
जहां सच्चे (अमर) प्रभु की स्तुति गायन करना है, वहीं व्यवहार भी सत्य का करना है – मुंह से भी सत्य बोलना है, और दिल का भी सच्चा रहना है। सत्य के व्यवहार से सच्चे प्रभु में अभेद हुआ जा सकता है। सारखीकार ने, गुरू जी के इन कंचनों को इस प्रकार चित्रित किया है :
एक अकाल उपाशो पिआरे। छको, धर्म की कर सभ कारे करो साच का संभ बिवहार। सुख संपति जयों बढे अपार एक ब्रोल इक तोल रखीजै। सुक्रित करो सरब दुख छीजै।