मीणा होआ पृथीआ, करि करि टेढक बरल चलाइआ।
गुरु रामदास जी के सारग राग में उच्चारित शबद से यह प्रतीत होता है कि पृथी चंद कुछ अधिक ही लड़ने-झगड़ने लग गया था। धैर्य की मूर्ति गुरु रामदास जी ने उसे बहुत सहजता से समझाया, “बेटा! पिता के साथ झगड़ना कोई अच्छी बात नहीं। जिसने पैदा किया, पाला पोसा और बड़ा किया है, उसके साथ झगड़ा करना मूर्खता है। यथाः
काहे पूत झगरत हउ संगि बाप ॥ जिन के जणे बडीरे तुम हउ तिन सिउ झगरत पाप ॥१॥ रहाउ ॥
गुरु रामदास जी ने उसको यह भी समझाया कि जिस माया पर कब्ज़ा करके तूं अहंकारी बना हुआ है, वह धन कभी भी किसी का अपना नहीं बना। माया के चस्के को नशा तो क्षणभंगुर होता है, उतर जाता है और फिर पछताना पड़ता है।
जिसु धन का तुम गरबु करत हउ सो धनु किसहि न आप ॥ खिन महि छोडि जाइ बिखिआ रसु तउ लागै पछुताप ॥१॥
बाबा पृथी चंद के पत्थर मन पर, गुरु पिता के इन उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं हो रहा था। वह तो बस गुरगद्दी हथियाने के लिए उतावला हो रहा था।
गुरु जी के दूसरे सपुत्र, बाबा महादेव जी मस्ताने और विरक्त स्वभाव के मालिक थे। दुनियावी कार-विहार उनको झमेले प्रतीत होते थे। उनको अपने जती -सती और तपस्वी होने का बहुत अहंकार था। इस अहंकारवश वे कई बार गुरु रामदास जी को ही उपदेश देने लग जाते थे और बोल-कुबोल कह जाते थे। वे गुरमत के महान नियमों- माइआ विच उदासी और गुरु आदेशों को श्रद्धा सहित मानने की कसौटी पर खरे नहीं थे उतरते। गुरु रामदास जी ने अपने सपुत्रों और अन्य निकटवर्ती गुरसिखों के बारे में दीर्घ विचार करने के उपरांत (गुरु) अर्जुन देव जी को उत्तराधिकारी नियुक्त करने का निर्णय कर लिया और एक दिन भरे दीवाने में (गुरु) अर्जुन देव जी को गुरगद्दी सौंप दी। उनके सम्मुख स्वयं माथा टेका और बाणी की पोथी भी भेंट कर दी। बाद में सारी संगत ने गुरु अर्जुन देव जी को माथा टेका। यह घटना भाद्रव संवत 1638 (अगस्त सन 1581) की है। उस समय गुरु अर्जुन साहिब की आयु लगभग 18 वर्ष की थी।