गुरु ज्योति गुरु अर्जुन में (गुर जोति अरजुन माहि धरी) - Jyoti Jyot Guru Ram Das Ji (Guru Ram Das Ji)

गुरु ज्योति गुरु अर्जुन में (गुर जोति अरजुन माहि धरी) – Jyoti Jyot Guru Ram Das Ji (Guru Ram Das Ji)

श्री गुरु राम दास जी के तीनों सपुत्रों में से (गुरु) अर्जुन देव जी बहुत तीक्ष्ण बुद्धि वाले थे। गुरु नानक देव जी के आशय को उन्होंने सहज ही समझ लिया था। और बाणी सै अगाध प्रेम करते थे। बाणी पढ़ते, गाते, समझते और समझाते। वे इस प्रकार अपने जीवन को गुरु आशय के अनुसार दाल रहे थे। अपने भंतों में ही नहीं बल्कि सभी सिखों में, सिखी आशय को समझने व अपनाने में सब से आगे थे। बचपन में ही बाणी के संग प्यार और लगन के कारण ही वे अपने नाना, श्री गुरु अमरदास जी की प्रसन्नता के पात्र बने थे। उन्होंने दोहिता, बाणी-की-बोहिथा कह कर आपके भविष्य की ओर इशारा किया था। (गुरु) अर्जुन देव जी की बाणी के प्रति लगन, सेवा-सुमिरन वाला जीवन और आदेश मानने के गुण ने गुरु रामदास जी के मन को जीत लिया था और वे (गुरु) अर्जुन देव जी को गुरगद्दी की जिम्मेवारी निभाने के योग्य समझने लग गए थे। गुरु रामदास जी का बड़ा पुत्र, बाबा पृथी चंद बहुत चतुर चालाक था। गुरु दरबार का सारा प्रबंध उसके अपने हाथ में था। देखने को तो वह सेवा भी करता था। पर उसके मन में सच्चा धर्मात्मा बनने की लगन कम ही थीं। उसका धन से बहुत प्यार था। वह मान सम्मान का भी भूखा था। उसकी सारी सेवा का लक्ष्य गुरगद्दी प्राप्त करना था। पर (गुरु) अर्जुन देव जी के साथ पिता गुरु का अधिक प्रेम देख कर उसको बहुत ईर्ष्या होती थी। वह नहीं चाहता था कि उसका छोटा भाई गुरगद्दी का वारिस बने। इसलिए उसने गुप्त तौर पर चालें भी चलनी शुरू कर दीं – धन के स्त्रोत पर पूरा अधिकार कर लिया और मसंदों को गांठना शुरू कर दिया। ईष्यवश वह कई बार गुरु रामदास जी के साथ ऊंच-नीच भी बोल जाता। वह यह भूल जाता कि गुरु रामदास जी केवल पिता ही नहीं, बल्कि गुरु भी हैं। उसके ऐसे व्यवहार के कारण भाई गुरदास जी ने उसको मीणा संबोधित करते हुए भी लिखा है।

मीणा होआ पृथीआ, करि करि टेढक बरल चलाइआ।

गुरु रामदास जी के सारग राग में उच्चारित शबद से यह प्रतीत होता है कि पृथी चंद कुछ अधिक ही लड़ने-झगड़ने लग गया था। धैर्य की मूर्ति गुरु रामदास जी ने उसे बहुत सहजता से समझाया, “बेटा! पिता के साथ झगड़ना कोई अच्छी बात नहीं। जिसने पैदा किया, पाला पोसा और बड़ा किया है, उसके साथ झगड़ा करना मूर्खता है। यथाः

काहे पूत झगरत हउ संगि बाप ॥ जिन के जणे बडीरे तुम हउ तिन सिउ झगरत पाप ॥१॥ रहाउ ॥

गुरु रामदास जी ने उसको यह भी समझाया कि जिस माया पर कब्ज़ा करके तूं अहंकारी बना हुआ है, वह धन कभी भी किसी का अपना नहीं बना। माया के चस्के को नशा तो क्षणभंगुर होता है, उतर जाता है और फिर पछताना पड़ता है।

जिसु धन का तुम गरबु करत हउ सो धनु किसहि न आप ॥ खिन महि छोडि जाइ बिखिआ रसु तउ लागै पछुताप ॥१॥

बाबा पृथी चंद के पत्थर मन पर, गुरु पिता के इन उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं हो रहा था। वह तो बस गुरगद्दी हथियाने के लिए उतावला हो रहा था।

गुरु जी के दूसरे सपुत्र, बाबा महादेव जी मस्ताने और विरक्त स्वभाव के मालिक थे। दुनियावी कार-विहार उनको झमेले प्रतीत होते थे। उनको अपने जती -सती और तपस्वी होने का बहुत अहंकार था। इस अहंकारवश वे कई बार गुरु रामदास जी को ही उपदेश देने लग जाते थे और बोल-कुबोल कह जाते थे। वे गुरमत के महान नियमों- माइआ विच उदासी और गुरु आदेशों को श्रद्धा सहित मानने की कसौटी पर खरे नहीं थे उतरते। गुरु रामदास जी ने अपने सपुत्रों और अन्य निकटवर्ती गुरसिखों के बारे में दीर्घ विचार करने के उपरांत (गुरु) अर्जुन देव जी को उत्तराधिकारी नियुक्त करने का निर्णय कर लिया और एक दिन भरे दीवाने में (गुरु) अर्जुन देव जी को गुरगद्दी सौंप दी। उनके सम्मुख स्वयं माथा टेका और बाणी की पोथी भी भेंट कर दी। बाद में सारी संगत ने गुरु अर्जुन देव जी को माथा टेका। यह घटना भाद्रव संवत 1638 (अगस्त सन 1581) की है। उस समय गुरु अर्जुन साहिब की आयु लगभग 18 वर्ष की थी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *