गुरु जी ने सही राग में चार लाचां की रचना की। इनका आंतरिक भाव, भगत रूपी स्त्री काः:प्रभुः पति के संग मेल अथवा संयोग है। इन लावा को सिख वर-वधु के अनंद कारज अर्थात विवाह के समय पढ़ने की मर्यादा भी कायम कर दी। इस प्रकार आप जी ने ब्राहमण पर निर्भर रहने की व्यवस्था को समाप्त कर दिया। विवाह के समय ब्राहमण वेदी गाड़ कर वेद मंत्रों से विवाह की रस्म पूरी करता था, जो अब सिख स्वयं ही लावां के पाठ द्वारा करने लग गए। इसमें किसी पुजारी की जरूरत नहीं। कोई भी व्यवसाय करने वाला सिव यह काम कर सकता है।
गुरु साहिबान के प्रयासों से, इस तरह से सिख जनता सहज ही ब्राहमण के दबाव से निकलती गई और सिख धर्म हिंदू रीतियों व रस्मों से स्वतंत्र होम गया।