गुरू जी के अमृतसर में आने से और पक्के तौर पर यहां पर निवास करने से, यह निर्माणाधीन शहर, सिख संरगर्मियों को केंद्र बन गया। सिख संगत भी भारी संख्या में आने लगी। नगर के निर्माण का काम तेज़ी पकड़ने लगा। अमृतसर सरोवर की खुदाई फिर आरंभ की गई। यह काम तीन चार वर्ष में संपूर्ण हुआ।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि सन 1577 में गुरू जी ने और जमीन खरीदी थी। मकानों आदि के बनने से नगर की आबादी रवासी बढ़ गई थी। 1577 से 1581 तक नगर का निर्माण कार्य जारी रहा। सिख संगत और निर्माण कार्य में लगे राज, मिस्त्री, मजदूरों व अन्य कारीगरों के लिए लंगर के प्रबंध का विशेष ध्यान देना जरूरी था। बाबा बुढा जी इस संबंध में विशेष सेवा निभा रहे थे। आप उस बेरी के नीचे, जो कि अब तक दरबार साहिब की परिक्रमा में कायम है तथा बाबा बुढा जी की बेर के नाम से प्रसिद्ध है, गुरू का लंगर उन सिख सेवकों में बांटते थे।
गुरू जी स्वयं उन मकानों में रहते थे जिन को गुरू के महल कहा जाता है। निजी लंगर के लिए अन्न-पानी का इंतजाम अपने बड़े सपुत्र पृथी चंद के सपुर्द किया हुआ था। इसके साथ ही वह बाबा बुढा जी की निगरानी में नगर के निर्माण के काम में और सामूहिक लंगर की सेवा की निगरानी भी करते थे। साझा लंगर दिन-रात, हर समय जारी रहता था। श्री गुरू रामदास जी का खास आदेश था कि सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहें। आए-गए मुसाफिर, यात्री, अभ्यागत व कारीगर-मजदूरों की सेवा करो और लंगर पानी पूछ कर वाहिगुरू की खुशियां प्राप्त करें। अपने इन आदेशों के फलस्वरूप सिख संगत जलपानी बांट कर, पंखा हेवा करके, थके मादे यात्रियों की मुट्ठी चापी करके व भोजन आदि करवा कर, एक दूसरे की सेवा बड़े चाव से करती थी।
जब गुरू जी स्वयं सेवा करते या करवाते थे तो एक बेरी के नीचे बैठा करते थे। वे इलाइची बेरी के नाम से प्रसिद्ध है क्योंकि इस को छोटी इलायची जैसे छोटे-छोटे बेर लगते थे। उस बेरी के नीचे दर्शनी दरवाजे के पास, श्री दरबार साहिर की परिक्रमा में आप की याद में अब छोटा सा गुरद्वारा सुशोभित है।