मसंद शब्द की उत्पत्ति, अरबी के शब्द मसनद से हुई है जिसका अर्थ है सिरहाणा, तकिया या गद्दी। उस समय हाकिम तख्त पर बड़े- बड़े गद्दे लगा कर बैठी करते थे। लोग उनको मसनद नशीन कहते थे। अनपढ़ लोग केवल इसे मसनद ही पुकार लेले, जिसका अपभ्रंश बाद में मसंद प्रचलित हो गया। मसंद क्योंकि गुरु रामदास जी ने नियुक्त किये थे, इसलिए इन को लोग रामदासिये भी कहा करते थे। बाद में इन के लिए गुरु के शब्द का प्रयोग किया जाने लगा, पर अधिकतर प्रसिद्ध शब्द मसंद ही रहा। यह हर साल बैसाखी और दीवाली के अवसर पर दो बार गुरु- दरबार में हाजिर हो कर गुरु साहिब को सारा हिसाब देते थे।
गुरु रामदास जी के इन प्रयासों ने कौम को मजबूत आर्थिक आधार पर खड़ा कर दिया। (ग) धर्म प्रचार के लिए प्रयास
गुरु नानक देव जी ने अपनी लंबी लंबी उदासियों यानी प्रचारक दौरों में गुरमत विचारधारा का प्रचार किया था। इसके साथ ही उन्होंने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में धर्म प्रचारक नियुक्त किये थे और संगत स्थापित की थी। गुरु अमरदास जी ने धर्म प्रचार के लिए 22 मजियां व 52 पीहड़े स्थापित किये थे। सिस्वी के तेजी से हो रहे विकास के कारण इतने यत्न ही काफी नहीं थे। गुरु रामदास जी ने, मसंद भी स्थापित कर दिए। ये संगत से कार भेंट (दसवंध) एकत्र करने के साथ-साथ धर्म प्रचार का काम भी किया करते थे। मसंद तीसरे पातशाह द्वारा नियुक्त किये गए मंज़ीदारों व पीहड़ेदारों के संग संपर्क रखते थे। उनके द्वारा एकत्र की गई कार भेंट गुरु, दरबार में पहुंचाते थे। जहां यह गुरु जी के हुकमनामे और गुरु जी द्वारा संचालित कार्यों की जानकारी सिख संगत तक पहुंचाते थे, वहीं सिख संगत् की हर प्रकार की खबर गुरु जी तक पहुंचाते थे। यह एक प्रकार के सिखी के दूत थे। मंजीदारों, पीहड़ेदारों व मसदों ने सिख संदेश को दूर तक पहुंचाया और लोगों को भारी संख्या में सिखी के दायरे में लाए।
गुरु रामदास जी ने भाई गुरदास जी को पूर्वी भारत में धर्म प्रचार की सेवा के लिए भेजा था। भाई गुरदास जी, उस समय सिरवी के सब से बड़े व्याख्याकार थे और कई भाषाओं के विद्वान थे। आपने, आगरा व काशी में निवास रख कर, आसे पास के क्षेत्रों में सिखी की खुशबू फैलाई। लोगों की बोली में प्रचार किया। इसी मकसद के लिए आपने बृज भाषा में कवित्त व सवैयों की रचना की।