Shri Guru Teg Bahadur Ji

गुरु वाणी विचार (Shri Guru Teg Bahadur Ji)

गुरु तेगबहादर जी की वाणी में गुरु ग्रन्य साहिब में सकलित हैं। यह वाणी सम्पूर्ण गुर वाणी के क्रम एवं योजना के अनुसार रोगों में बद्ध है। गुरु तेगबहादुरजी की वाणी के अंतर्गत ५६ शब्द तथा ५७ श्लोक हैं जिन्हें भोग (पाठ समाप्ति) के श्लोक भी कहा जाता है| जहां तक आध्यात्मिकता, नैतिकता, ज्ञान, आदर्श व साधना का समबन्ध है| गुरुजी की वाणी समस्त गुरु वाणी के साथ एक स्वर है| गुरमत में यह मान्यता सर्वस्वीकृत है:

जोति ओहा जुगति साइ सहि काइआ फेरि पलटीऐ ॥

कहने का भाव यह है कि गुरु-व्यक्ति एक ही पावन ज्योति तथा एक ही मर्यादा के संचालक एवं सस्थापक थे। गुरु तेग बहादुर जी के अनुसार परमात्मा या अकाल पुरुष एवं परमेश्वर उच्चतम, पावनतम तथा निरपेक्ष सत्य है। जिसकी गति एवं सीमा का अनुमान मानव को सामर्थ्य के बाहर है। योगी, यति, तपस्वीं एवं अन्य साधक उस परम तत्व के मर्म को समझने व प्राप्त करने का यत्न करते हैं। वह परम तत्व सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी तथा सर्वजगत का कर्ता है। छोटे को बड़ा एवं बड़े को छोटा राव को रंक तथा रंक को राव, हलके को भारी व भारी  को हल्का बना देना उसका स्वाभाविक चमत्कार है।

दृश्यमान जगत में जो घटनाएं हैं, जो स्थितियां अस्तित्व में आती है, नामों व रूपों का जो परिवर्तन घटित होता है, इस सबका कर्ता वह अकाल-पुरुष परमात्मा है। यह सम्पूर्ण दृष्टि प्रसार उसने स्वयं फैलाया है। वह अलक्ष्य, अपार व निरंजन हैं जो दृश्यमान जगत का स्रष्टा है, परंतु वह इन सबसे अतीत एवं निलिप्त है।

धर्म पर आधारित विचार एवं संस्कृति में दो धाराएं प्रमुख होती है आस्तिक व नास्तिक। इस बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए यह कहना उचित होगा कि संसार के प्रमुख धर्मों में जो धर्म परम सत् एवं परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं वे आस्तिक हैं तथा जो धर्म-चेतना के अनुसार मानव जीवन का प्रमुख प्रयोजन में उद्देश्य प्रभु का अथवा परमेश्वर की प्राप्ति है। इस प्राप्ति को परम धाम भी कहा जाता है। प्रभु की प्रीति मानव मन की स्वाभाबिक, सत्य एवं वास्तविक आकांक्षा होती हैं । परन्तु इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए अथवा अन्तिम प्रयोजन की प्राप्ति के लिए साधना के जो मार्ग अपनाए गए, वे पृथक-पृथक थे।

भारतीय साधना के इन विभिन्न मार्गों में से योग मार्ग एक विशेष महत्वपूर्ण मार्ग माना जाता है। जो व्यक्ति योग से सम्बंधित ब्राह्य भेष धारण करता है, परन्तु उसका मन पराई निन्दा व स्तुति से संलग्न रहता है तथा जिसका का मन भटकता रहता है ऐसा योगी प्रभु-प्राप्ति के मार्ग की युक्ति नहीं जानता।

आध्यात्मिक जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए गृह में गृहस्थ त्याग करके वनों में जाने की आवश्यकता नही। गुरूजी उपदेश देते हैं कि जंगल व वन में जिसकी खोज करने जाते हो वह निरपेक्ष प्रभु निलिप्त है तथा सर्वव्यापी व प्रत्येक हृदय में निवास करता है। परम सत्य व दृश्यमान जगतू के परस्पर सम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिये गुरुजी ने उस परम तत्व को सर्वव्यापकता के रहस्य को स्पष्ट तथा धार्मिक शैली द्वारा इस प्रकार व्यक्त किया है कि जिस प्रकार फूल में सुगंध है एव दर्पण में प्रतिबिम्ब है, उसी प्रकार परम सत्य प्रत्येक स्थान एव कण-कण में विद्यामन है।उसकी खोज के लिए दृष्टि को अंतःजगत की और केन्द्रित करने की आवश्यकता है।

गुरु तेगबहादुरजी के उपदेशानुसार साधना के दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं प्रपति एवं गुण गायन| प्रपति का अर्थ है प्रभु की शरण में जाना जो व्यक्ति मन वचन-कर्म सहित स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर देता है वह उत्तम पदवी को प्राप्त कर भवसागर पार कर जाता है| मानव सदैव सुख का इच्छुक है| उसकी सम्पूर्ण कार्य-शक्ति इस बात पर केन्द्रित रहती है कि दुःख से मुक्ति तथा सुख की प्राप्ति कैसे हो? गुरु तेगबहादुरजी के अनुसार नाम स्मरण से ही सुख की प्राप्ति सम्भव हो सकती है| गुरुजी के वचन है:

हरि को नामु सदा सुखदाई ॥
जा कउ सिमरि अजामलु उधरिओ गनिका हू गति पाई ॥१॥ रहाउ ॥
पंचाली कउ राज सभा महि राम नाम सुधि आई ॥
ता को दूखु हरिओ करुणा मै अपनी पैज बढाई ॥१॥
जिह नर जसु किरपा निधि गाइओ ता कउ भइओ सहाई ॥
कहु नानक मै इही भरोसै गही आनि सरनाई ॥२॥१॥

गुरुजी की वाणी में सच्चाई-पूर्ण जीवन को जो संकल्पना मूर्तिमान की गई है, उसके अनुसार प्रभु का गुण-गायन ही उत्तम पवित्र साधन है| जो व्यक्ति संसार की रंग-रलियों में व्यस्त व लीन रहती हैं, अनेक प्रकार के विषय-विकारों में आसक्त होकर जीवन के बहूमूल्य भाग यौवन काल को व्यर्थ नष्ट करते हैं वे अपने सम्पूर्ण जीवन को ही नष्ट कर लेते हैं|

जो व्यक्ति तत्व ज्ञान से वंचित है वे धन, स्त्री, सांसारिक पदार्थों आदि को ही जीवन की सार्थकता का ठोस आधार मान लेते हैं| परंतु जिन साधकों ने साधना द्वारा आध्यात्मिक मति की स्थिरता प्राप्त की है, वे अपनी वृत्तियों को क्षणभंगुर वस्तुओं से हटाकर एक मात्र प्रभु स्मरण एवं उसके गुण-गायन में केन्द्रित कर लेते हैं| ये वे व्यक्ति होते हैं जो सुख-दुःख, मान-अपमान, हर्ष-शोक, काम-क्रोध, एवं लोभ-मोह से अतीत व विरक्त होते हैं तथा इस कठिन साधना द्वारा निर्वाण-पद को प्राप्त कर लेते हैं|

गुरु तेगबहादुरजी के अनुसार उत्तम व्यक्ति के आचरण वयवहार की विशेषता यह है कि वह प्रत्येक व्यक्ति के अस्तित्व में परम तत्व के प्रकाश की झलक देखता है, एवं इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को सम्मान व सत्कार का अधिकारी समझता है| इस प्रकार के उत्तम व्यक्तित्व वाला व्यक्ति न तो किसी से भयभीत होता है एवं न ही किसी को भयभीत करता है| गुरु वाक है:

भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन ॥ कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखानि ॥१६॥

(सलोक महला ६, पृट १४२७)

यदि व्यक्तिगत तथा सामूहिक व्यक्तित्व का निर्माण व गठन उपयुक्त गुरु-वाक् अनुसार किया जाए, तो फिर इस प्रकार का वातावरण सम्भव हो सकता है जहां कोई शत्रु अथवा पराया नहीं होगा, जहाँ सहयोग, पारस्परिक मित्रता एवं सहकारिता का स्वच्छ प्रेम प्रकाशित होगा|

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